
नई दिल्ली: दिल्ली में आम आदमी पार्टी (AAP) सरकार पर कैग (CAG) की रिपोर्ट्स को जानबूझकर दबाने का आरोप लगाते हुए, विपक्षी भाजपा विधायकों ने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इन रिपोर्ट्स में दिल्ली सरकार की विभिन्न नीतियों और कार्यों में गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगाए गए थे, जिनमें शराब नीति से संबंधित कथित घोटाले से राजस्व को 2000 करोड़ रुपये के नुकसान का दावा सबसे अहम था। भाजपा विधायकों का कहना था कि इन रिपोर्ट्स को नियमों के मुताबिक विधानसभा में पेश करना अनिवार्य है ताकि इन पर चर्चा हो सके और गड़बड़ियों को उजागर किया जा सके। लेकिन AAP सरकार ने इन रिपोर्ट्स को ठंडे बस्ते में डाल दिया और विधानसभा स्पीकर, जो खुद AAP पार्टी से हैं, ने इसे लेकर कोई पहल नहीं की।
विपक्ष का आरोप था कि शराब नीति से जुड़े इस घोटाले की रिपोर्ट सरकार के लिए बेहद असहज थी। रिपोर्ट के मुताबिक, इस नीति के कारण दिल्ली के राजस्व को भारी नुकसान हुआ। साथ ही अन्य रिपोर्ट्स में भी सरकार की कई नीतिगत खामियों और आर्थिक अनियमितताओं की ओर इशारा किया गया था। भाजपा विधायकों का कहना है कि AAP सरकार ने जानबूझकर इन रिपोर्ट्स को विधानसभा में पेश नहीं किया ताकि इन पर चर्चा न हो सके और सच्चाई जनता के सामने न आए। इसके अलावा, विपक्ष का यह भी कहना था कि विधानसभा अध्यक्ष, जो खुद AAP से जुड़े हैं, ने इस मामले पर कोई कदम नहीं उठाया। भाजपा विधायकों ने जब इस मामले में अदालत का रुख किया तो उन्होंने दलील दी कि सरकार का यह रवैया संविधान और नियमों के खिलाफ है।
भाजपा विधायकों द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए, दिल्ली हाई कोर्ट ने स्वीकार किया कि CAG रिपोर्ट पेश करने में असामान्य देरी हुई है, जो संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन है। लेकिन कोर्ट ने यह कहते हुए विधानसभा की विशेष बैठक बुलाने या रिपोर्ट पेश करने का आदेश देने से इनकार कर दिया कि यह मामला विधानसभा के दायरे में आता है और अदालत इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। जस्टिस सचिन दत्ता की सिंगल बेंच ने कहा, "रिपोर्ट पेश करने में जितनी देरी हुई है, वह सही नहीं है। संविधान के अनुसार, इन रिपोर्ट्स को सदन में समय पर पेश करना अनिवार्य है। लेकिन, हम विधानसभा की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार नहीं हैं।"
इस फैसले के बाद सवाल उठ रहा है कि आखिर जनता के प्रति जवाबदेही किसकी है? AAP सरकार ने जहां इन रिपोर्ट्स को दबाने की कोशिश की, वहीं अदालत ने भी विधानसभा में रिपोर्ट पेश करने को लेकर निर्देश देने से इनकार कर दिया। आखिरकार, यह पैसा करदाताओं का था, और उनकी जानकारी से इस सच्चाई को छुपाना सीधे तौर पर उनकी जवाबदेही से भागने जैसा है।
हम दखल नहीं दे सकते का एक और गंभीर मामला:-
इस मामले ने एक पुरानी घटना की याद दिला दी, जब 1990 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने अपने बहुमत को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के सांसदों को 50-50 लाख नकद देकर अपने पक्ष में मतदान के लिए खरीद लिया था। उस समय विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में JMM सांसदों को पेश करते हुए यह खुलासा किया था कि कांग्रेस ने उन्हें कारों में भरकर नकदी दी थी। सबकुछ साफ़ हो गया, JMM सांसदों ने मान लिया कि उन्हें पैसे दिए गए, पीएम नरसिम्हाराव पर केस भी दर्ज हो गया और कांग्रेस की फजीहत होने लगी। आगे, यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, लेकिन अदालत ने कहा कि वह संसद की कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और कोई सजा नहीं दे सकती। नतीजतन, गिर रही नरसिम्हा राव सरकार बच गई और उस पर भ्रष्टाचार या खरीद-फरोख्त का कोई दाग भी नहीं लगा। वरना अगर, खरीद-फरोख्त पर फैसला आ जाता, तो ये भी बताना पड़ता कि इतना नकद आया कहाँ से ? लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट की चारदीवारी में कैद हो गया।
इस घटना के दो दशकों बाद, 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने संसद और विधानसभा में हुई ऐसी गतिविधियों को अपराध मानने का फैसला सुनाया। लेकिन तब तक न सिर्फ नरसिम्हा राव की सरकार चल चुकी थी, बल्कि वे स्वयं इस दुनिया से विदा हो चुके थे।
अब दिल्ली में CAG रिपोर्ट्स का मामला भी कुछ ऐसा ही है। रिपोर्ट्स पेश न करने से सरकार ने न सिर्फ अपने संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन किया, बल्कि उन गड़बड़ियों पर चर्चा करने का मौका भी खत्म कर दिया, जिन्हें सुधारने की आवश्यकता थी। अदालत का यह कहना कि वह विधानसभा की कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, इस पूरे प्रकरण को और भी उलझा देता है।
इससे सवाल उठता है कि यदि सरकार और अदालत दोनों ही जनता के हितों की रक्षा के लिए कदम नहीं उठाएंगे, तो फिर जवाबदेही किसकी होगी? 2000 करोड़ का यह नुकसान सीधे-सीधे करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा है। सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह इसे जनता के सामने स्पष्ट करती, लेकिन इसके बजाय उसने इसे छुपाने का प्रयास किया और अदालत ने ये कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि वो विधानसभा के कार्यों में दखल नहीं दे सकती। तो फिर जवाब मांगने वाली जनता कहाँ जाएगी ?
इस पूरे प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जनता को अपने अधिकारों और करदाताओं के पैसे के इस्तेमाल पर नजर रखनी होगी। सरकारों और संस्थानों की जवाबदेही तय करना जरूरी है, ताकि इस तरह की घटनाएं दोबारा न हों। अगर समय पर सही कदम न उठाए गए, तो भविष्य में जनता के अधिकारों का हनन इसी तरह होता रहेगा। CAG रिपोर्ट्स का पेश न किया जाना न सिर्फ संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है, बल्कि यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ भी है। जनता को इस मामले में न सिर्फ सतर्क रहना होगा, बल्कि अपनी आवाज भी उठानी होगी, क्योंकि जवाबदेही से बचने का अधिकार किसी को नहीं है।