रूमी एक अनोखे सूफी संत थे
रूमी एक अनोखे सूफी संत थे
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धार्मिक विद्वान जलालुद्दीन रूमी, दुनिया के जाने-माने कवि और सूफी संत बनने से पहले अपने अंदर एक ऐसे खालीपन के एहसास से जूझ रहे थे, जो बयान नहीं किया जा सकता। हालांकि रूमी के हजारों प्रशंसक और शिष्य थे, फिर भी उन्हें ऐसा लगता था कि उनके जीवन में कुछ कमी है।

रूमी को अपनी प्रार्थनाओं का फल तब मिला, जब शम्स तबरेज़ नाम के घुमक्कड़ दरवेश उनके जीवन में आए। एक दूसरे से मिलने के बाद दोनों अच्छी तरह से यह समझ गए कि उनके भीतर ईश्वर को जानने की एक जैसी ललक मौजूद है।

शम्स ने एक ऐसे शख्स की तलाश में पूरे मध्यपूर्व की यात्रा की थी, जो उनके साथ को झेल सके। कहा जाता है कि जब अस्त-व्यस्त बालों वाले शम्स वहां आए, तो रूमी किताबों के ढेर के पास बैठे कुछ पढ़ रहे थे। शम्स तबरेज़ ने उनसे पूछा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’ रूमी को लगा कि वह कोई अनपढ़ अजनबी है।

इसलिए उन्होंने व्यंग्यपूर्वक जवाब दिया, ‘मैं जो कर रहा हूं, उसे तुम नहीं समझ पाओगे।’ यह सुन कर शम्स ने किताबों के ढेर को, जो रूमी की खुद की लिखी हुई थीं, उठा कर पास के एक तालाब में फेंक दिया। रूमी जल्दी से भाग कर उन किताबों को तालाब से निकाल लाए और यह देख कर हैरान रह गए कि वे सभी किताबें सूखी थीं। रूमी ने शम्स से पूछा, ‘यह सब क्या है?’ शम्स ने जवाब दिया, ‘मौलाना, इसे आप नहीं समझ पाएंगे।’
फिर क्या था, इस घटना के बाद से रूमी इस असभ्य से दिखने वाले घुमक्कड़ के गुलाम हो गए। उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ शम्स का अपने जीवन में स्वागत किया। कहा जाता है कि शम्स ने रूमी को एकांतवास में चालीस दिन तक शिक्षा दी। इसके बाद रूमी एक बेहतरीन शिक्षक और न्यायाधीश से एक सन्यासी बन गए।

जलालुद्दीन रूमी

रूमी के शिष्य और साथी शम्स से ईष्र्या करते थे। उन्हें अपने दोस्त और गुरु के ऊपर शम्स का अधिकार जमाना पसंद नहीं था। एक रात रूमी और शम्स आपस में बात कर रहे थे, तभी शम्स को किसी ने पिछले दरवाजे पर बुलाया। वह बाहर गए और फिर उसके बाद उन्हें किसी ने नहीं देखा। ऐसा कहा जाता है कि रूमी के बेटे अलाउद्दीन की मिलीभगत से शम्स का कत्ल कर दिया गया।

शम्स से बिछुडऩे के बाद रूमी बहुत परेशान हो गए। उनके ऊपर एक तरह का आध्यात्मिक उन्माद छा गया। वह गलियों में नाचते हुए घूमते और सहज स्वाभाविक गाने गाते। धीरे-धीरे उनके इस नाच-गाने ने ‘समा’ प्रार्थना-सभा का रूप ले लिया, जिसमें उनके सारे शिष्य शरीक होने लगे। समा एक तरह की प्रार्थना है, जो नाचते-गाते हुए की जाती है। अब इसे दरवेशों के द्वारा किए जाने वाले नृत्य के रूप में जाना जाता है।

रूमी शम्स को खोजने निकले और सीरिया की राजधानी दमिश्क तक चले गए। वहां रेगिस्तान में उन्हें अहसास हुआ कि ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे खोजने के लिए भटका जाए। उन्हें लगा कि वह ईश्वर या शम्स को इसलिए नहीं खोज पाए, क्योंकि वे तो हमेशा उनके अंदर ही रहते हैं। उन्होंने सोचा, ‘मैं उसे क्यों खोजूं? मैं भी वैसा ही तो हूं, जैसा कि वह है। उसी का सार तो मेरे माध्यम से बोलता है। ये तो मैं खुद को ही खोज रहा हूं।’

रूमी दमिश्क से वापस चल दिए और एक पूरी तरह बदले हुए इंसान के रूप में वापस लौटे। उन्होंने हमेशा के लिए अपनी किताबों को छोड़ दिया। शम्स के साथ उन्होंने जो रहस्य और प्रेम बांटा था, उसे अभिव्यक्त करने में उन्होंने अपना पूरा बाकी जीवन लगा दिया। रूमी को कविता ही सबसे सटीक माध्यम मिला जिसके द्वारा वे अपने गुरु शम्स तबरेज़ के प्रति अपनी श्रद्धा और आदर को अभिव्यक्त कर सकते थे।

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