एक कविता बेटियों के नाम...'बुढ़ापे कीं लाठी'
एक कविता बेटियों के नाम...'बुढ़ापे कीं लाठी'
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होकर बड़े छोड़ देते हैं उन हाथो को 
ज़िन हाथो ने था चलना सिखाया 
अब तो बेटियाँ ही सच्ची हैं 
जिन्होंने बढ़कर हैं हाथ बढ़ायाँ 

सितम ढाते हैं जो बेटीयो पे 
यें उनकी बहुत बड़ी भूल हैं 
बुढ़ापे कीं है  यें लाठी 
और नाजुक सी फुल हैं 

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