आत्म- संतुलन क्यों  है जरूरी
आत्म- संतुलन क्यों है जरूरी
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अपने आप पर संतुलन बनाये रखना अतिआवश्यक है क्योकि इसके सम्बन्ध में कहे गए स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी के बोल - यह भुलावे  में दफन एक प्राचीन मिथक नहीं है।यह वर्तमान की सबसे बहुमूल्य विरासत है। यह आज की आवश्यकता है, और कल की संस्कृति।"  

जो खुद पर संतुलन बनाये रखता है उसे जग में विजय अवश्य ही प्राप्त होती है .यदि मानव अपनी इच्छाशक्ति के वशीभूत होकर स्वयं का विवेक खो बैठेगा तो एक न एक दिन उसका पतन अवश्य होगा साथ ही वह समाज को भी हानि पहुचायेगा बिलकुल वैसे ही जैसे  भंवरा पुष्प की ओर आकृष्ट होता है और पुष्पपराग के पान में इतना मदमस्त हो जाता है कि उसे कुछ भी ध्यान नहीं रहता और अन्त में रात्रि के समय पुष्प की पंखुड़ी बंद होने से कैद में पड़ा रहता है। 

व्यावहारिक स्तर पर यदि शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाये रखने में यदि हम सक्षम नहीं होते है। तो हम अपने कर्मो को कभी नहीं समझ सकते है .हमारा शरीर कई इन्द्रियों का जाल है . प्रत्येक इन्द्रियों के अपने विषय है और उनकी अपनी लत है . यदि आँखों की इन्द्रियों को वश में नहीं किया जायेगा तो वह सिर्फ सुंदरता को ही देखना चाहेगी तो कानो की इन्द्रियाँ केवल मीठा ही सुन्ना चाहेगी तो नाक की इन्द्रियाँ सुगंध को तो रास की इन्द्रियाँ स्वाद को तो संसार में उपलब्ध सभी वस्तुए अशिष्ट की और चल पड़ेगी .

भगवद् गीता में निष्काम कर्म के लिए इन्द्रिय निग्रह को आवश्यक माना गया है। प्राचीन संर्दभों में भी देखा जाए तो महर्षि पंतजलि ने भी सम्यक योग के लिए इन्द्रिय विजय पर बल दिया है इसीलिए यदि हम अपनी इच्छा इन्द्रियों पर बल नहीं देंगे तो हमारा पतन निश्चित ही है .

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