सोशल मीडिया युवाओं का दुश्मन ?
सोशल मीडिया युवाओं का दुश्मन ?
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हमारे देश मे सूर्य उदय से पहले उठने की परम्परा शायद खत्म ही हो गई है. आज के युवा क्या करना चाहते है ये शायद वो खुद भी नहीं जानते. लेकिन इस तरह की दिनचर्या का दोषी क्या इन युवाओं को माना जा सकता है, नहीं. फेसबुक, ट्विटर, जैसे सोशल मीडिया के बिना ज़िंदगी की कल्पना करना भी शायद बहुत मुश्किल है. सुबह उठने से लेकर रात या कहें आधी रात को सोने तक सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन हमारी ज़रूरत से ज्यादा हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनते जा रहे है , पर सब मे दोष किस है , सोशल मीडिया का , स्मार्ट फोन का , नहीं दोष शायद किसी का नहीं बदलाव का है.

और हमें वक़्त के साथ चलना है तो हमें ये बदलाव स्वीकार करना ही होगा. आज के समय मे हर युवा अपने वक़्त का काफ़ी हिस्सा असल दुनिया के बजाय वर्चुअल दुनिया मे बिताता है. क्योकि हर युवा अपनी वर्चुअल दुनिया मे हीरो होता है. वो हर काम जो एक युवा अपनी असल ज़िंदगी मे करना चाहता है या जैसा बनना चाहता है वह अपनी ख़्वाहिश सोशल मीडिया पर पूरी करता है. ये सारी समस्याए हर माँ बाप और हर बुजुर्ग को हर युवा से होती है, पर वो ये भूल जाते है अब समय बदल चुका है, क्या पुराने समय मे जब सोशल मीडिया नहीं था तब क्या बुजुर्गो को युवाओं से कोई शिकायत नहीं होती थी.

फिर अब सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन पर दोष क्यूँ ? हमें ये नहीं भूलना चाहिए हर युवा दुनिया को बदलने की काबिलियत रखता है. चाहे फ़ेसबुक पर उसका प्रोफ़ाइल कैसा भी हो, चाहे वो कोई भी फोन इस्तेमाल करता हो, बस हमें हमारे युवाओं पर भरोसा रखना होगा और उन्हे थोड़ी आज़ादी भी देनी होगी, उन पर अपने विचार और दकियानूसी  परम्पराएँ  को थोपना बंद करना होगा, युवाओं को खुद तय करने दें की उनके लिए क्या सही है.

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