व्यवहारिकता का पाठ
व्यवहारिकता का पाठ
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कभी-कभी एक छोटी सी घटना जीवन-दर्शन को परिवर्तित कर जीवन की दिशा ही बदल देती है। ऐसा ही कुछ राकेश शर्मा के साथ हुआ। महाविद्यालय में नवनियुक्त लेक्चरर राकेश शर्मा अपनी इमानदारी, निष्ठा तथा शिक्षण के प्रति समर्पण के लिए वियात थे। उनका व्यक्तित्व न केवल छात्रों के लिए बल्कि साथी अध्यापकों के लिए भी आदर्श था। एक बार जून के तपिश भरे महीने में आंगन में पेड़ की छांव तले बैठकर राकेश शर्मा उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन कर रहे थे। हर उत्तर को बड़ी बारीकी से पढ़कर पूर्ण सावधानी एवं निष्पक्षता से अंक प्रदान कर रहे थे, तभी धोती -कुर्ता पहने हुये लंबे कद के एक वृद्ध व्यक्ति ने मुख्य द्वार से प्रवेश किया।

अनुभव आयु के रूप में उसके व्यक्तित्व से झलक रहा था। शर्मा साहब के निकट आकर बोला, लेक्चरर साहब से मिलना है। निकट पड़ी हुयी कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुये राकेश शर्मा ने कहा, कहिए क्या  काम है मैं ही लेक्चरर राकेश शर्मा हूं। 

वृद्ध व्यक्ति ने दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्रता से कहा यदि साहब की कृपा हो जाय तो हमारा बच्चा भी पास हो जाय। और यह कहते हुये उसने अनुक्रमांक लिखी हुयी पर्ची औैर एक हजार रूपये का नोट राकेश शर्मा की ओर बढ़ा दिया। शर्मा जी ने कुछ कठोरता के भाव से उस व्यक्ति से कहा आपने क्या मुझे रिश्वतखोर समझ रखा है। यदि आज एक विद्यार्थी अनुचित साधनों से उत्तीर्ण होता है तो कल वह समाज को क्या देगा। यह मूल्यांकन कल के समाज का ।

सिद्धांतों के पाठ कक्षा के लिए उपयोगी हैं, बेटे राकेश शर्मा को बीच में ही रोकता हुआ वह वृद्ध बोला, जीवन व्यवहारिकता का दूसरा नाम है। मेरा काम यदि आप नहीं करेंगे तो विश्वविद्यालय का क्लर्क कर देगा, अंतर सिर्फ इतना होगा कि ये एक हजार रूपये आपके न होकर उसके हो जायेंगे। राकेश शर्मा ने एक क्षण सोचा, हजार का नोट जेब में रखा और अनुक्रमांक लिखी पर्ची लेकर उत्तर-पुस्तिकाओं के ढेर में उस अनुक्रमांक की उत्तर-पुस्तिका तलाशने लगे। व्यवहारिकता का पाठ अब उनकी समझ मे आ चुका था । 

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