अचला एकादशी की व्रत कथा एवं महात्म्य
अचला एकादशी की व्रत कथा एवं महात्म्य
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पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को अपरा एकादशी के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि यह अपार धन देने वाला व्रत है, जिसके द्वारा मनुष्य संसार में मान-सम्मान और प्रसिद्धी प्राप्त करते है.इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा की जाती है तथा इस व्रत को करने से कार्तिक पूर्णिमा में तीनों पुष्करों में स्नान करने से या गंगा तट पर पितरों को पिंडदान करने से प्राप्त फल के समरूप ही अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है.

प्राचीन काल में महीध्वज और  वज्रध्वज नमल दो राजा भाई थे जिसमे महीध्वज, एक धर्मात्मा राजा तथा वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था और अपने बड़े भाई से द्वेष करता था.एक दिन रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या कर उसके शरीर को जंगल में पीपल के पेड़ के नीचे गाड़ दिया. इस अकाल मृत्यु से राजा प्रेतात्मा के रूप में उसी पीपल पर रहने लगा और अनेक उत्पात करने लगा.

एक दिन वहां से गुजरते हुए धौम्य नामक ॠषि ने प्रेत को देखा और तपोबल से उसके अतीत को जान लिया. उस प्रेत के उत्पात का कारण समझकर ॠषि ने प्रसन्न होकर उसको पीपल के पेड़ से उतारा तथा परलोक विद्या का उपदेश दिया. दयालु ॠषि ने राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपरा (अचला) एकादशी का व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने को उसका पुण्य प्रेत को अर्पित कर दिया. इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई. वह ॠषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया.

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