आराधना और आरोग्य का संबंध
आराधना और आरोग्य का संबंध
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पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियां हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है

ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियां बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: निरोगी रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम ही 'नवरात्र' है।

मौसम जब बदलता है तो नए मौसम को आत्मसात करने या फिर अनुकूलन स्थापित करने के लिए हमें अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है, ताकि विभिन्ना प्रकार के रोग हम पर हावी न हो सकें और हम स्वस्थ बने रहें। बात जब हिन्दू धर्म के तीज-त्योहारों एवं परंपराओं की हो तो इनमें विज्ञान की महत्ता भी नजर आ ही जाती है।

धन्य हैं हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि जिन्होंने अपनी दूरदर्शिता के चलते जिन नियमों का प्रतिपादन किया, उन्हें विज्ञान आज सिद्ध कर रहा है। चैत्र नवरात्र के साथ ही तीव्र गर्मी का और शारदीय नवरात्र के तत्काल बाद ठंड आ जाती है।

यानी एक मौसम से दूसरे मौसम में दस्तक और इस बदलते मौसम में कुछ मौसमी बीमारियों का भी आगाज होता है। इन्हीं दिनों में पदार्पण होता है शक्ति के दिनों का। देवी शक्ति की साधना न सिर्फ हमें शक्ति प्रदान करती है, अपितु उन्हें लगाया जाने वाले भोग से भी दिव्य ऊर्जा की प्राप्ति होती है।

नवरात्र के नौ दिनों में जो हवन संविधान, देशी घी के साथ डाली जाती है, वह वातावरण के कीटाणुओं का नाश करती है। साथ ही घी की आहूति से प्राणवायु ऑक्सीजन का निर्माण होता है, यही कारण है कि प्राचीन ऋषियों ने नित्य होम का आह्वान किया है।

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यदि देवी भगवती को अर्पित किए जाने वाले भोग-प्रसाद की बात की जाए तो उसमें गौघृत, शकर, दूध, मालपुआ, केले, मधु, गुड़, नारियल, धन सभी चीजें दिव्य ऊर्जा का स्रोत हैं। साथ ही साथ विज्ञान की भाषा में बात की जाए तो उपरोक्त सभी चीजों में सभी प्रकार के कैल्शियम, विटामिन्स का समावेश भी है, जो बेहतर स्वास्थ्य एवं ऊर्जा हमें देता है।

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सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि होती है। कहते भी हैं ना स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर का स्थायी निवास होता है। इसलिए नवरात्र में शक्ति में वृद्धि करने के लिए उपवास, संयम, पूजन व साधना आदि करते हैं।

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