पंचकल्याणक के पांचवे दिन ज्ञानकल्याण
पंचकल्याणक के पांचवे दिन ज्ञानकल्याण
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उज्जैन। मुनि आदिनाथ की दीक्षा के उपरांत आदिकुमार का प्रथम आहार का दिन आता है और मुनिश्री आदिकुमार आहार के लिए हस्तिनापुर नगरी में पहुंचते हैं। जहां लगभग 6 माह तक मुनिश्री आदिकुमार को आहार प्राप्त नहीं होता है फिर छह माह के पश्चात राजा सोमप्रभु और युवराज श्रेयांश सुधीरनंदा जैन आहार देने के लिए तैयार होते हैं और मुनि आदिकुमार को 6 महीने उपरांत हस्तिनापुर में विधि मिल जाने पर इच्छु रस से आहार संपन्न हो जाता है। इस आहार की प्रक्रिया में संपूर्ण समाजजन मुनि आदिनाथ की मूर्ति को इच्छु रस के साथ अनेक प्रकार के भोगों से आहार शुध्द वस्त्र पहनकर कराते हैं। 

दोपहर में विधिनायक प्रतिमा और अन्य प्रतिमाओं के लिए मंत्र आराधना, अधिवासना, तिलकदान, मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राण प्रतिष्ठा, केवलज्ञानोत्पत्ति, समवशरण की रचना कुबेर द्वारा केवलज्ञान पूजन संपन्न हुआ। पांच दीपक जलाकर केवलज्ञान को दर्शाया गया। जयजयकार और वादयंत्रों की ध्वनि कराई गई। समवशरण लगाया गया जिसमें चारों दिशाओं में चार भगवान विराजमान कर मुनिश्री समतासागरजी एवं ऐलक निश्चयसागर द्वारा दिव्य ध्वनि के रूप में प्रवचन हुए। बाल ब्रह्मचारी अभय भैया एवं सुनील भैया के नेतृत्व में समवशरण में भगवान आदिनाथ द्वारा दिव्य ध्वनि को दर्शाया गया।

श्रेया जैन और आर्या कासलीवाल ब्राह्मी देवी बनकर समवशरण में बैठी। भगवान के इस समवशरण में जहां देवी देवता इंद्र, सौधर्म इंद्र आए वहीं दिगंबर जैन संत, आर्यिकाएं, दीदियां, राजा महाराजा, श्रावक, श्राविकाएं के साथ प्रियंश गति के जीव शेर, हाथी, घोड़े, भालू आदि सभी जानवर भी आए। समवशरण की रचना का सौभाग्य दिनेश जैन, लवीश जैन, रमेश जैन सुपरफार्मा को प्राप्त हुआ। समवशरण में मुनि महाराज द्वारा प्रवचन दिए गए। साधना जब विशुध्दता की परम उंचाईयों पर संपर्ष करने लगती है तब बौध्दि की प्राप्ति होती है। बौध्दि की प्राप्ति से उपजा अशोक वृक्ष जीवन के शोक रहित अरहद पद का सूचक होता है। जो केवल्य ज्ञान होने पर प्राप्त होता है।

इस बोध लाभ को ही दिव्य ज्ञान, केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान सूर्य उदय के पूर्व प्रकट होने वाली प्राची की उस लालिमा के संदर्श है जो निर्वाण पूर्व सूर्य उदय का होना सुनिश्चित करता है। यह ज्ञान सारे संसार को प्रकाशित कर मंगलकारी मुक्ति का संदेश देता है। ज्ञानदर्पण में कण-कण का झलकना फिर भी निजानंद का ही अनुभव ही इस ज्ञान की दिव्यता और विशेषता है। दर्पण में झलकने वाली वस्तुओं की स्पष्टता की तरह प्रतिबिंब होता है जो हमें प्रतिबिंब तो करता है लेकिन पकड़ता नहीं है। स्वागत सबका पर संग्रह किसी का नहीं। यही दर्पण का जीवन है। 

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