जब आदमी को बनना पड़ा बैल
जब आदमी को बनना पड़ा बैल
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नई दिल्ली : यह खबर सरकार के आम आदमी के विकास की झूठी तरक्की के आंकड़ों की पोल खोल रही है.यह हम सभी के लिए शर्म की बात है कि 21 वीं सदी में भी आदमी बैल बनने को मजबूर है. यह खबर तब और तकलीफ बढ़ाने वाली महसूस होती है, जब यह पता चले कि यह उस राज्य से जुड़ी खबर है , जिसे पिछले कुछ वर्षों से लगातार कृषि कर्मण अवार्ड से सम्मानित किया जा रहा है. जहाँ 11 सालों से सीएम पद पर शिवराज सिंह चौहान के काबिज रहने का जश्न मनाया गया. जहां अंत्योदय की ढेर सारी योजनाओं का ढिंढोरा पीटा जा रहा है.जी हाँ यह उसी मध्य प्रदेश के गुना जिले की घटना है जहां एक शख्स को दो जून की रोटी के इंतजाम के लिए बैल बनना पड़ा. ऐसा लगा जैसे प्रेमचन्द युगीन कहानी का कोई पात्र ज़िंदा हो गया हो. ऐसे में यह तथाकथित विकास मुंह चिढ़ाता नजर आ रहा है.

दरअसल हुआ यूँ कि गुना जिले के खिलचीपुर में रहने वाला मोहन बंजारा चाकू-छुरी बेचकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करता है.इसके लिए उसे बैलगाड़ी से कई-कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है.इसी बीच उसका एक बैल बीमार पड़ गया.ऐसे में मोहन की दुविधा यह थी कि वह बैल का इलाज कराए या फिर उसे गाड़ी में जोतकर सामान बेचने जाए.उसके पास जो रुपए थे उससे जैसे तैसे बैल का इलाज कराया फिर भी वह ठीक नहीं हुआ.गुरुवार शाम को अपनी बैलगाड़ी से सामान बेचने जाते समय रास्ते में बैल की मौत हो गई. अब .मोहन पशोपेश में था कि पत्नी राधोबाई और डेढ़ साल के बेटे पप्पू के साथ वह सड़क पर रात कैसे गुजारे. यदि वह नहीं जाएगा तो सुबह खाने का इंतजाम होना मुश्किल था.ऐसे में मोहन ने बड़े भारी मन से और नम आंखों से अपने मरे बैल को वहीं दफनाया और बैलगाड़ी में दूसरे बैल के साथ खुद ही जुतने का निर्णय लिया.

हालांकि उसने पत्नी राधो बाई को बैलगाड़ी में बैठने को कहा, लेकिन राधो को यह बात गवारा नहीं थी कि उसका पति गाड़ी अकेले खींचे.ऐसी दशा में उसने अपने बेटे को साड़ी के पल्लू की झोली बनाकर उसमें कंधे से लटकाया और खुद भी गाड़ी को धक्का लगाने लगी. दोनों ने मिलकर 12 किलोमीटर तक गाड़ी खींची और आखिर जामनेर पहुंच ही गए. आदमी के बैल बनने की इस खबर पर सरकार क्या और कब संज्ञान लेगी यह देखना बाकी है.

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