स्मार्ट सिटीज : ऐसी कैसी स्पर्धा? और क्यों चाहिए थी स्पर्धा?

प्रस्तुत लेखों की जोड़ी के पहले भाग में हमने जाना कि '100 स्मार्ट सिटी योजना' के गिनाये गए कई उद्देश्यों में से कौन से दो ही ऐसे उद्देश्य हैं, जो इस योजना को वाजिब साबित करते हैं ? और यह भी देखा कि इस योजना हेतु शहरों के चयन की जो पद्धति अपनायी गयी उसमें इन वाकई महत्वपूर्ण उद्देश्यों का ध्यान नहीं रखा गया है | साथ ही उदाहरणों सहित जाना कि इस पद्धति से किस प्रकार कई गलत शहरों का चयन हुआ है और कई असल हक़दार शहर छूट गए है | जब चयन के स्तर पर ये गलतियां हुई है तो स्वाभाविक है कि आगे क्रियान्वयन में और भी गलतियां होंगी | फ़िलहाल हम चयन प्रक्रिया क्यों गलत है केवल यही स्पष्ट करना चाहते हैं| इस प्रक्रिया का पहला स्तर राज्यवार शहरों की संख्या (कोटा) के वितरण का था | जिसके जरिये दूसरे उद्देश्य को पूरा करने यानि राज्यों के विकास में वर्तमान क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने की कोशिश की जा सकती थी | किन्तु केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने इसका उलट काम ही किया अर्थात एक गलत फार्मूले से पिछड़े राज्यों को कम व अगड़े राज्यों को ज्यादा कोटा दिया | 

पिछले लेख में यह भी उदहारण सहित बताया गया था | लेकिन सबसे बड़ी आपत्ति तो कथित स्पर्धा आधारित चयन से है | यह स्पर्धा कोटा-वितरण के बाद शुरू होती है | मुद्दा यह है कि, जिन दो वाजिब उद्देश्यों का उल्लेख पूर्व में किया गया; उनके लिए तो किसी प्रकार की स्पर्धा का कोई औचित्य ही नहीं हैं | पहला असल महत्व का उद्देश्य है: विदेशी निवेश को आकर्षित करने, देशी निवेश को प्रोत्साहन देने और उद्द्योग, व्यापार, पर्यटन आदि को बढ़ावा देने हेतु 100 शहरों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्मार्ट शहर बनाना, जो ग्रोथ इंजिन्स की तरह विकास की गति को बढ़ाये | अब "विभिन्न राज्यों के कौनसे शहर अधिक अच्छे ग्रोथ इंजिन्स बन सकते है ?" इस निर्णय में स्पर्धा का क्या काम है ? 

यह तो विभिन्न शहरों की आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का मूल्यांकन करके ही तय होना चाहिए ना ? लेकिन ऐसा नहीं करके स्पर्धा की ड्रामेबाजी रची गई | देखिये इस कथित स्पर्धा के अगले चरण में क्या हुआ ? कोटे की संख्या मिलने के बाद अब राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई हाई पॉवर्ड स्क्रीनिंग कमिटी ने शहरों में अब तक कुछ खास मामलो में हुए कामों व वर्तमान स्थितियों सम्बन्धी कुछ बिन्दुओ पर संभावित शहरों का मूल्यांकन करके शहरों का चयन कर लिया | फिर सब राज्यों ने अपने-अपने चुने हुए शहरों के नाम भेज दिए और असल में शहरों का चयन तो यही पूरा हो गया | अब अगले अंतिम चरण में जो स्पर्धा हो रही है वह केवल यह तय करने के लिए है कि स्मार्ट सिटी बनने की कतार में आगे कौन लगेगा ? 

किन्तु इस गौण महत्त्व के निर्णय के लिए सबसे अधिक ताम-झाम सहित पैंतरेबाजी दिखाई जा रही है | लोगों की सहभागिता का दिखावा तो बहुत हद तक प्रायोजित कार्यक्रम ही है | कुल मिलाकर, दोनो ही चरणो के जो पैमानों तय किये गए हैं, वे अधिकांशतः ऐसे हैं, जिनसे उन शहरो के अब तक के निगमों के प्रशाशको, नेताओं व तकनिकी सलाहकारों की कार्यक्षमताओं या स्मार्टनेस को जांचा जा रहा है | लेकिन उस शहर में मौजूद विकास की सम्भावनाओं और शहर के विकास के जरिये देश के विकास की सम्भावनाओं का आकलन नहीं हो रहा है | सोचिये, "किसी शहर में 20 दिसंबर 2015 तक कितने शौचालय बन चुके थे, क्या इस बात से विकास की सम्भावनाओ को समझा जा सकता है ? या उस शहर में रोजगार, उद्योग, व्यापार, पर्यटन, कनेक्टिविटी व प्रशाशन की दृष्टि से क्या विशेषताएं या कमियां है, इसे देखा जाना चाहिए था ? 

यह भी बहुत संदेहास्पद है कि कथित हाई पॉवर्ड स्क्रीनिंग कमिटी ने एक जैसे मापदंडो या सामान दृष्टिकोणों से शहरों का चयन किया है | यदि ऐसा होता तो जब सभी राज्यों ने अपनी राजधानियों को चुना है तो फिर, बिहार, बंगाल, कर्नाटक व केरल ने अपनी राजधानियों को क्यों छोड़ दिया ? इस प्रकार तो पटना, कोलकाता, बैंगलोर व त्रिवेंद्रम जैसे शहर छूट गये, जो कि पहले ही ग्रोथ इंजिन्स के रूप में अपनी सार्थकता सिद्ध कर चुके हैं | यदि ये स्मार्ट बनते तो अपनी यह भूमिका और भी अच्छी तरह निभाते | यदि पहले ही बड़े या सघन बन चुके शहरों को स्मार्ट नहीं बनाने का सोच ठीक होता, तो यह सोच अन्य सभी बड़े शहरों पर भी लागु होना चाहिए था | परन्तु जब सही सोच यह है कि, बड़े बन चुके शहरों को भी 'रि-डेवलपमेंट व रेट्रोफिटिंग' के जरिये पुरानी बसाहट सहित स्मार्ट बनाना है; तो विकास में योगदान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण इन शहरों को क्यों छोड़ा गया ? अंत में यह भी स्पष्ट करना जरुरी लगता है कि, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि इस चयन प्रक्रिया से पूरी सूची ही गलत बनी है | 

बल्कि मैं मानता हूँ कि आर्थिक-सामाजिक-भौगोलिक आदि मूल्यांकन के आधार पर, यानि सही तरीके से भी यदि शहरों का चयन होता तो लगभग 80 नाम तो ये ही रहते; केवल 15-20 नाम ही बदलते | परन्तु, उससे पूरी सरकारी मशीनरी व जनता का भी दृष्टिकोण इस योजना के प्रति अलग होता, साफ़ होता और तब यह सबको पुरे देश के हित की यानि सभी के हित की योजना लगती और उसके क्रियान्वयन के प्रति सबका नजरिया भी बहुत बेहतर होता | यह समझना अब भी जरुरी है कि "विकास की संभावनाओं एवं क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने के सार्थक उद्देश्यों को ध्यान में रखने का नजरिया यदि शुरूआत से ही रखा जायेगा तो निश्चित ही वह इस योजना को देश के संतुलित विकास में (अभी की तुलना में) बहुत अधिक उपयोगी बना सकता है"| 

* हरिप्रकाश 'विसंत'

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