कही तिरंगा पूछ ना बैठे, किसको तू सुना रहा है

कही तिरंगा पूछ ना बैठे, किसको तू सुना रहा है. यह सब मेरे अरमानों के कातिल है, जिनको तू इतना बता रहा है.

इन लोगो ने मुझको, संप्रदाय में बाँट दिया. कर के सदभाव की झूठी बाते, मेरे श्वेत रंग को काट दिया. हर त्यौहार पर इन लोगो ने, मुझको बड़ा सजाया. अमर क्रांति और आजादी का, नारा बहुत लगाया. पर ना देखा किसी ने एकटक मुझको, क्या दर्द मुझे सता रहा है. कही तिरंगा पूछ ना बैठे, किसको तू सुना रहा है.

मेरे इस प्राचीन देश की, कितनी सुन्दर ये धरा थी. मर गए जाने कितने मासूम, वो जमीं मेरी गोधरा थी. हुआ गुजरात भी लहू लुहान, पर मेरी तरफ ना एकटक देखा. अक्षर धाम को भी नही बक्शा, चीर गये मेरी तीनो रेखा. फिर भी क्यों ये मुझपर, अपना हक़ जता रहे है. कही तिरंगा पूछ ना बैठे, किसको तू सुना रहा है.

कितना बलिदान छिपा है मुझमे, ओ नादानों कुछ तो जानों. अशोक चक्र की विजय गाथा को, थोड़ा तुम भी पहचानों. याद करो वो जलियां वाला, जिसने झकझोर दिया हमको. याद करो उस बंटवारे को, जिसने कमजोर किया हमको. होकर अलग वो देश से अपने, आज भी सता रहा है. कही तिरंगा पूछ ना बैठे, किसको तू सुना रहा है.

जिन्दा हूं मैं बस एक वजह से, सैनिक सीमा पर खड़ा है. छोड़ अपने सुख चैन को, देश के खातिर लड़ा है.  वो मेरे अरमानों के खातिर खाये गोली, फिर भी तू खुशिया मना रहा है.  कही तिरंगा पूछ ना बैठे, किसको तू सुना रहा है. यह सब मेरे अरमानों के कातिल है, जिनको तू इतना बता रहा है.

                                                                                                   "कवि- बलराम सिंह राजपूत"

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