उनके ही लफ्ज़ ना मिले कभी

आईने के ख़्वाब ही  आईने की बातें हैं रौशनी में लिपटकर उनके साए देखो आते हैं बड़े एहतराम से संभालकर रखा था ख़ुद के वादों को मैंने उनके ही लफ्ज़ ना मिले कभी अब तक रहते हैं मेरे साथ ख़याल उनके जो अब शायद मुझे अजनबी समझते हों काश कुछ हादसा ऐसा हो तू ख़यालों से निकल आये मैं अक्सर सोचता हूँ जिनको वो हक़ीकत में बदल जाये मेरे लफ़्ज़ों की बंदिशें अक्सर ही नाकाफ़ी रही हैं जब कभी बयां करना चाहा  अपने आपको मैंने हर लफ्ज़ अपने आप में अधूरेपन की दास्ताँ है मैं अपने अक्स को भी अधूरा ही पाता रहा हूँ साबुत आईने में भी क्यूँ ख़्वाहिशें बेरंग सी हैं  मैं अधूरेपन में पूरा हूँ और तू पूरेपन से अधूरा है बड़ी सीधी सी बात है समझने को  ज़िन्दगी कभी थमती नहीं कईयों दफ़ा महसूस हुआ ऐसा 'ज़िन्दगी' के बिना भी ज़िन्दगी होती है !

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