आज भी भटक रही है अश्वथामा की आत्मा

अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे. उनकी गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी. वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे.अश्वत्थामा भी अपने पिता की भांति शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे. पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत के युद्ध के दौरान पांडवों की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था,  श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए युधिष्ठिर से कूटनीति का सहारा लेने को कहा. इस योजना के तहत युद्धभूमि में यह बात फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया है. यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग के युद्धभूमि में बैठ गए और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया.

पिता की मृत्यु ने अश्वत्थामा को विचलित कर दिया. अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया, तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया और युगों-युगों तक भटकते रहने का शाप दिया था. 

कहा जाता है कि असीरगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश के ही जबलपुर शहर के गौरीघाट नर्मदा नदी के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते हैं,  कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की मांग भी करते हैं, गांव के कई बुजुर्गों की मानें तो जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है.

गायब हो जाता है यह मंदिर

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