थकने के कहाँ निशाँ होते हैं

आसमानों में उड़ते परिंदे  थोड़े खुश थोड़े चहचहाते से अपनी ही मस्ती में मस्त होकर नापते हैं दूरियां खोलकर बाहें

पंखों की ऊँची उड़ानों से हौंसले जवां होते हैं बुलंदियाँ जहाँ आँखों में हों थकने के कहाँ निशाँ होते हैं

चाहता हूँ उड़ना उन्हीं की तरह जो हर पल हवा में जवान होते हैं जो खुलकर ना फैला सकें पंखों को सुकून के पल भी बेमानी होते हैं

कब तक पालूं गिरने के डर को कभी तो आगे बढ़ना ही होगा मैं उड़ने की कोशिश में गिर भी जाऊं फिर उठूँगा, उठना ही होगा

मेरी नन्हीं सी आँखों ने कुछ देर पहले आसमां की अनंतता को नापा है अब कसौटी है हौंसले और हिम्मत की आसमानों को छोड़ पीछे बहुत आगे जाना है

गर लड़खड़ा जाऊं कभी रास्तों में मंजिल ही हमसफ़र बनकर रास्ता दिखायेगी मुझे ख़ुद की सुनकर बस चलते है जाना  कि हिम्मत अगर हो तो मंजिलें ख़ुद पास आएँगी !

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