तेरा ही घर ढूंढता रहा

मैं अक्सर ही इक अदद ख़्वाब की चाहत में सुकूं से लबरेज़ वो नींद ढूंढता रहा मुद्दतों ख़ुद की पहचान से दूर रहा और भटकते हुए तेरे निशां ढूंढता रहा

कुछ कहते हैं ना जाने क्यूँ मेरे क़लाम को बेहतर लिखने के बाद मैं ख़ुद ही पन्नों को फाड़ता रहा वो मुस्कुराते हुए भी ग़ैरतमंद जान पड़ता था और मैं नज़रें झुकाकर भी बे-ग़ैरत होता रहा

जो शामें गुज़ारता था अक्सर ख़ुमारी में वो मुझसे आकर मयख़ाने का पता पूछता रहा ये तमाम शहर ही कभी मेरा हुआ करता था और मैं आज यहाँ तेरा ही घर ढूंढता रहा

महफ़िलों में भी तन्हा ही बसर हुआ करती थी मेरी वो तू नहीं यादें थी जो हर क़दम साथ होती थीं तू बढ़ता गया हर-एक लम्हे के साथ में और मैं पीछे खड़ा बेबस तुझे देख बस सुबकता रहा !

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