तबाही का मन्ज़र देखा है

दर्द-ए-इश्क़ ने तबाही का मन्ज़र देखा है,, कभी लैला मजनूं तो सोहनी को मरते देखा है,,,, जमाने उल्फ़त मे क़द्र नही जमात-ए-इश्क़ की,, कब्र मे फूलों के गुच्छे को चढ़ते देखा है,,, क़सम इश्क़ की खाने वाले सरपरस्ती मे तेरे कलम हर दिल अज़ीज़ को करते देखा है,,,,,

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