मिथुन राशि को आज जरूर करना चाहिए श्रीरामचरितमानस का अरण्य कांड पाठ

आप सभी को बता दें कि आज हनुमान जयंती है. ऐसे में आज के दिन मिथुन राशिवालों को श्रीरामचरितमानस के अरण्य कांड का पाठ करना चाहिए क्योंकि यह उनके लिए बहुत लाभदायक होने वाला है. तो आइए जानते हैं श्रीरामचरितमानस के अरण्य कांड का पाठ.

श्रीरामचरितमानस के अरण्य कांड का पाठ - 

श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) श्लोक मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम्॥१॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥२॥

सोरठा- -उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥ सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना॥

दोहा- अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥१॥ प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥ धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥ मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥ नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहिं पाई॥ निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥

सोरठा- -कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥२॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥ करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥

सोरठा- -प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥३॥

छंद- नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥ भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥ निकाम श्याम सुंदरं। भवाम्बुनाथ मंदरं॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥ प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥ निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥ दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥ मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥ मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥ नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजं॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा॥ पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥ विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा॥ निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥ पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥ व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता॥

दोहा- बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥४॥

अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥ रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥ दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥ कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥ मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥ अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥ धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥ बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना॥ ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥ एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥ जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान संत सब कहहिं॥ उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥ मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें॥ धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥ बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥ पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥ छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥ बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥ पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई॥

सोरठा- -सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ। जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय॥५क॥ सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि। तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥५ख॥ सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥ तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥ संतत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥ धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥ जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥ ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥ अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥ जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥ केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी॥ अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥

छंद- तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए। मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥ जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई। रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥

दोहा- कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल। सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥६(क)॥

सोरठा- -कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप। परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥६(ख)॥

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥ आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥ उमय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥ सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा॥ जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया॥ मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता॥ तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा॥ पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥

दोहा- देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग। सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग॥७॥

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥ जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥ चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥ नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥ सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥ जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥ एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा॥

दोहा- सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम॥८॥

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥ ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥ रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥ अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा॥ पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥ अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥ जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥ निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥

दोहा- निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥९॥

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥ मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥ प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥ हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥ सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई॥ मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥ नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥ एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥ होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन॥ निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥ दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥ कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥ अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥ अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥ मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा॥ तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥ मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा॥ भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥ मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें॥ आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥ परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी॥ भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥ मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला॥ राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा॥

दोहा- तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥१०॥

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥ महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥ श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥ पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं॥ मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः॥ निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः॥ अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥ हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥ संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥ भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥ निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥ अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं॥ भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥ अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥ अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः॥ धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥ जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥ जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥ जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना। अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥ परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही॥ मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥ तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥ अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥ प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥

दोहा- अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥११॥

एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा॥ बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥ अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥ देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई॥ पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥ तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ॥ नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥ राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥ सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥ मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥ सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥ पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा॥ जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा॥

दोहा- मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर। सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर॥१२॥

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही॥ तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥ अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥ मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥ तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥ ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया॥ जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना॥ ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥ ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥ यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥ अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥ जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता॥ अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥ संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥ है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥ दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥ बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥ चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई॥

दोहा- गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ॥ गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥१३॥

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥ गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए॥ खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं॥ सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥ एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥ सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई॥ मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥ कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥

दोहा- ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ॥ जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥१४॥

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥ मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥ गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥ एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा॥ एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥ ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही॥ कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥

दोहा- माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥१५॥

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥ जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥ सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥ भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥ भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥ प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥ एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥ श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥ संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥ गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा॥ मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥ काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥

दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम॥ तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥१६॥

भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥ एहि बिधि गए कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥ सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥ पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥ भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥ होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी॥ रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई॥ तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥ मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं॥ ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥ सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता॥ गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥ सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा॥ प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥ सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥ लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥ पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई॥ लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई॥ तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयंकर प्रगटत भई॥ सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई॥

दोहा- लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि। ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥१७॥

नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा॥ खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥ तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई॥ धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥ नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा॥ सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥ असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥ गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥ कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई॥ धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा॥ लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटकु भयंकर॥ रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी॥ देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा॥

छंद- कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों। मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥ कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै॥ चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥

सोरठा- -आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट। जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज॥१८॥ प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥ नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई॥ जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा॥ देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई॥ मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु॥ दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई॥ हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं॥ रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥ जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक॥ जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥ रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई॥ दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥ छं-उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा। सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा॥ प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥

दोहा- सावधान होइ धाए जानि सबल आराति। लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति॥१९(क)॥ तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर। तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर॥१९(ख)॥

छंद- तब चले जान बबान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥ कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥ अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥ भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥ तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥ आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥ रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि॥ छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥ उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन॥ चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥ भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड॥ नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड॥ खग कंक काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥

छंद- कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं। बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं॥ रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा। जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा॥ अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं॥ संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं॥ मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥ सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं। करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥ प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका। दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥ महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥ सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो। देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो॥

दोहा- राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान। करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥२०(क)॥ हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान। अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥२०(ख)॥

जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥ तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए। सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥ पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥ धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥ बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥ करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥ राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥ बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ॥ संग ते जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥ प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी॥

सोरठा- -रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि। अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥२१(क)॥

दोहा- सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ। तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ॥२१(ख)॥

सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाहँ उठाई॥ कह लंकेस कहसि निज बाता। केँइँ तव नासा कान निपाता॥ अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए॥ समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥ जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥ देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥ अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥ सोभाधाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥ रुप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥ तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥ खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥ खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥

दोहा- सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति। गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥२२॥

सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥ खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥ सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥ तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥ होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥ जौं नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥ चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ॥ इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥

दोहा- लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद। जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥२३॥

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥ तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥ जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥ निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रुप सुबिनीता॥ लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥ दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥ नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई॥ भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥

दोहा- करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात। कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥२४॥

दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥ होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी॥ तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा॥ तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥ मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥ सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥ भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥ जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥

दोहा- जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड॥ खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥२५॥

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥ गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥ तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥ सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥ उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना॥ उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥ अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा॥ मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥

छंद- निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं। श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥ निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी। निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥

दोहा- मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान। फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥२६॥

तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥ अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥ सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा॥ सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥ सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥ तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥ मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा॥ प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥ सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥ प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥ निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥ कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥ प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥ तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥ लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥ प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥ अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥

दोहा- बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ। निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ॥२७॥

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥ आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥ जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥ भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥ मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥ बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥ सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥ जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥ सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई॥ इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा॥ नाना बिधि करि कथ

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