सोना चाहता हूँ कुछ देर

सोना चाहता हूँ कुछ देर आधी रात बीत चुकी है जाग रहा हूँ मैं कुछ ख्याल है मेरे में तुम्हारे थोड़े मेरे कुल मिलाकर हमारे ख्यालों के साथ मिलकर कुछ बीतीं यादें भी हैं बरबस ही आज जाने केसी निकल पड़ीं और बह चलीं हैं साथ दो आँखों से एक लड़ी भीगी मोतियों की वो उजली सुबह वही चमकती शामें और मुस्कुराती रातों को कब से सोच रहा हूँ हैरान हूँ मैं खुद कि फिर से उस जेसे फिर से सुबह शाम रातें होते क्यों नहीं अधखुली खिड़की से छानकर आती चांदनी  और बिखरे पड़े तमाम सितारे बस एक लकीर सी जगह देख रहा हूँ उसे कोशिशों को धकेलकर परे ये मन फिर से क्यों बार बार भाग रहा है हल्का सर्द है मौसम आज फिर भी मैं तर बतर बेठा हूँ पसीने से जाने तेरी यादें हर बार किस तरह और क्यों निकल आतीं हैं  बेचैन कर देतीँ हैं मुझे मैं हलाकि आजकल तुम्हें सोचता तो नहीं लेकिन कई एक पल जेसे तुझमें डूबकर आता है और मुझे फिर से धकेलकर पीछे फेक देता है  ठीक उसी वक्त में जिसमें सिर्फ तुम्हीं तुम होते थे यादों का सन्दुक जब खुल ही गया है  कितना कुछ निकलकर बिखर गया है सामने जिसमें कुछ सामान है जो मेरे मन के तहखाने में था और फिर से बेबस होकर मैं बस देख रहा हूँ अपने ही वजूद के कुछ उन हिस्सों को  जो तुमसे अलग होकर बेतरह मेरे पास रह गए थे समेट तो लूँ मैं इन्हें लेकिन खुद को कैसे समेट पाउँगा कोशिश करता हूँ मैं कुछ करवटें ही सही  बदलकर तो देखूं शायद कुछ राहत मिले और मैं कल से निकलर वापिस आज में लौटकर कुछ पहर सो सकूँ शायद

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