सर पटक के मैंने देखा है

नज़ारा काश कुद़रत का,अगर ऐसा नज़र आता.. समन्दर ये किसी दरिया,के दामन में समा जाता.. धुंवाँ है..धुंध या कुछ,तो सुलगा सा लगता है.. झुकाये सर कोई ख़ुद,में उलझा सा लगता है.. पत्थरों पे सर पटक के मैंने देखा है, आवाज़ आई धीरे से चोट लगती है.. मुद्दतों के बाद जब,हम रुबरु हुये..  लग रहा था जैसे,दोनों गूँगे-बहरे हैं.. मेरे कलम की नोक पे,नज़्म थी बहकी हुई, कहने लगी शायर,मुझे तू छेड़ता हरवक्त है.. देख कर पलक़ें झुका लो,ये मुझे मंजूर हैे... देख के भी नज़रें चुरा लो,ये नहीं मंजूर है... एक दिन इठला के बोली,बज़्म में मेरी ग़ज़ल, ये वाह..वाही..!का बता,शोर है किसके लिये...

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