शीशे की तरह मैं चुभता हूँ

अक्सर मुझसे वो कहते हैं,शीशे की तरह मैं चुभता हूँ..  आईना उनका तो हूँ नहीं,क्या टूटा काँच का टुकड़ा हूँ.. फुर्सत नहीं है आजकल,जख़्म सीने से, अश्क़ भी कम पड़ गये,सीने सिलाने में.. क्या दिल लगाने की,कोई तरकीब होती है..  जब भी लगाते हम,बडी़ तकलीफ़ होती है.. तेरी चौखट पे जला,दिल छोड़ आया हूँ, बुझ गया हो ग़र उसे,फिर से जला देना.. जुबां को कै़द करके फिर,लगा बत्तीस दिये ताले..  मगर इस बेजुबां दिल ने,बयां जज़्बात कर डाले.. न उसे पाने की जिद़ थी,न छोड़ने की चाह..  बेखुदी में जी रहे थे हम,खुद से ही गुमराह.. अब पलट करके नहीं,आऊँगा तेरे गाँव..  हरियाली दिल में रही,न जुल्फों में छाँव.. धूप भी लगती भली,जुल्फों के साये में..  जलता बदन तेरे बिना,पेड़ों के साये में.. पलकें बिछा कर इसलिए,मैं बैठ जाता हूँ, काँटे चुभें न तेरी,यादों के नाजुक़ पाँव में.. बडी़ शिद्दत से चाहा था तुझे,लेकिन भुला दिया..  फरिश्ते ने कहा मुझसे,वो तो चाहत खुदा की है.. तोड़ कर लाया था कुछ,कलियाँ गुलाब की.. मुरझा गई सब जब सुना,आमद है आपकी.. जिन्दगी तूने कोई,वादा नहीं किया..  पर कभी मौत से,ज्यादा नहीं दिया..

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