अहमद फ़राज़ के ख़ज़ाने से...

हमारे सब्र की इंतहां क्या पूछते हो “फ़राज़” वो हम से लिपट के रो रहे थे किसी और के लिए

 

हमारे बाद नहीं आएगा तुम्हे चाहत का ऐसा मज़ा फ़राज़ तुम लोगों से खुद कहते फिरोगे की मुझे चाहो तो उसकी तरह . कसूर नहीं इसमें कुछ भी उनका फ़राज़ हमारी चाहत ही इतनी थी की उन्हें गुरूर आ गया.

 

हमने चाहा था इक ऐसे शख्स को “फराज” जो आइने से भी नाजुक था, मगर था पत्थर का.

 

हम से बिछड़ के उस का तकब्बुर* बिखर गया फ़राज़ हर एक से मिल रहा है बड़ी आजज़ी* के साथ.

 

हम ने सुना था की दोस्त वफ़ा करते हैं फ़राज़ जब हम ने किया भरोसा तो रिवायत ही बदल गई.

 

हम अपनी रूह तेरे जिस्म में छोड़ आए फ़राज़ तुझे गले से लगाना तो एक बहाना था.

 

हज़ूम-ए-गम मेरी फितरत बदल नहीं सकती “फराज़”, मैं क्या करूं मुझे आदत है मुसकुराने की . वो ज़हर देता तो दुनीया की नज़रों में आ जाता “फराज़” सो उसने यूँ किया के वक़्त पे दवा न दी.

 

हजूम ए दोस्तों से जब कभी फुर्सत मिले अगर समझो मुनासिब तो हमें भी याद कर लेना.

 

सौ बार मरना चाहा निगाहों में डूब कर ‘फ़राज़’ वो निगाह झुका लेते हैं हमें मरने नहीं देते.

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