छुट्टियों पर बानी कविताएं

छुट्टी का दिन है चाहिए जैसे गुज़ारिए, मुर्ग़ा लड़ाइए कि कबूतर उड़ाइए.

सड़कों पे घूमने से तबीअत हो जब उचाट, होटल में बैठ जाइए क़िस्से सुनाइए.

खा खा के पान फूँकिए सिगरेट नौ-ब-नौ, पेशावरान-ए-शहर से पेंगें बढ़ाईए.

अफ़सर को दीजे घर पे बुला दावत-ए-निगाह, दफ़्तर में जा के रोब फिर अपना जमाइए.

रिश्वत के दम-क़दम से सलामत है ज़िंदगी, दिल खोल कर तमाम ही ख़ुशियाँ मनाइए.

हर वक़्त घर में बैठने से फ़ाएदा 'मतीन',  चल फिर के ज़िंदगी के तजरबे उठाइए.

 

 

हमारे ख़्वाब कुछ इनइकास लगता है, ये आदमी तो हमें रू-शनास लगता है.

गुज़ारिशात भी बाइस थीं बरहमी का कभी, अब उस का हुक्म भी इक इल्तिमास लगता है.

जो अपने नाम से तहरीर उस ने भेजी है, हमारे ख़त काकोई इक़्तिबास लगता है. 

बिला-सबब ये करे बद-गुमान क्यूँ आख़िर,  दुरुस्त! नासेह! क़याफ़ा-शनास लगता है. 

वो हम से तर्क-ए-तअल्लुक़ पे अब है आमादा,  हमें तो आप का ये इक क़यास लगता है. 

ख़ुदा करे कि हमें वो दुआ न कोई दे,  हमें तो कोसना ही उस का रास लगता है. 

तराशें पैरहन अब कुछ नई ज़मीनों में,  दरीदा शेर का पिछ्ला लिबास लगता है. 

ये दौर कैसा है जिस शख़्स से भी मिलना हो,  परेशाँ-हाल शिकस्ता उदास लगता है. 

बताएँ आप को क्या है 'मतीन' की पहचान,  सरापा दर्द है तस्वीर-ए-यास लगता है.

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