संत रविदास के विरोधियों का सिर हुआ नीचे और उनकी हुई जय-जयकार भारत

भारत जैसे महान संस्कृति वाले देश में समय-समय पर कई महान संत हुए है, जिन्होने अपने ज्ञान के प्रकाश से समाज के अंधकार को दूर किया। इनमें से एक नाम संत रविदास का भी है। उन्हें रैदास के नाम से जाना जाता था। 22 फरवरी को रविदास की जयंती है। संत रविदास ने साधु-संतों के सानिध्य में रहकर व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा पाई। माघी पूर्णिमा के दिन, 1383ई. में काशी में संत रविदास का जन्म हुआ।

उनके माता-पिता चर्मकार थे। जिसे उन्होने भी सहर्ष स्वीकार किया। वो शुरुआत से ही बेहद दयालु, परोपकारी व दूसरों की मदद करने वाले थे। उनके दरवाजे पर जो भी संत-फकीर आते, उन्हें वो बिना पैसे लिए अपने हाथ के बने जूते पहनाते थे। इसी कारण घर का खर्च चलाना कठिन हो गया, तो पिता ने भी क्रोध में घर से बाहर रहने के लिए जमीन दे दिया। उस जमीन पर उन्होने एक कुटिया बनाई।

वहां जूते बनाकर संतों की सेवा करते और जो बचता उससे अपना पेट पालते। एक दिन एक ब्राह्मण उनके द्वार आए और कहा कि गंगा स्नान करने जा रहा हूँ, एक जूता चाहिए। उन्होंने बिना पैसे लिए ब्राह्मण को एक जूता दिया और एक सुपारी ब्राह्मण को देकर कहा कि, इसे मेरी ओर से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी लेकर गंगा स्नान करने चल पड़ा।

गंगा स्नान करने के बाद गंगा मैया की पूजा की और जब चलने लगा तो अनमने मन से रविदास जी द्वारा दिया सुपारी गंगा में उछाल दिया। तभी एक चमत्कार हुआ गंगा मैया प्रकट हो गयीं और रविदास जी द्वारा दी गई सुपारी अपने हाथ में ले लिया। गंगा मैया ने एक सोने का कंगन ब्राह्मण को दिया और कहा कि इसे ले जाकर रविदास को दे देना।

ब्राह्मण भागता हुआ संत रविदास के पास पहुंचा और कहा कि आज तक गंगा मइया ने मुझे कभी भी सामने से दर्शन नहीं दिया और तुम्हारी दी हुई सुपारी लेने के लिए वो खुद ही प्रकट हो गई। प्रसन्न होकर उन्होने आपके लिए ये कंगन दिया है। आपकी कृपा से मुझे भी मां के दर्शन हुए। इस बात की खबर पूरे काशी को लग गई। रविदास जी के विरोधियों ने इसे पाखंड बताया और कहा कति यदि वो सच्चे है, तो दूसरा कंगन लाकर दिखाए।

दूसरे दिन रविदासजी भक्ति में लीन होकर भजन गा रहे थे। चमड़े को साफ करने के लिए वो एक बर्तन में पानी भरकर रखते थे। उसी जल में गंगा मइया प्रकट हुई और दूसरा कंगन संत रविदास को भेंट स्वरुप दिया। विरोधियों का सिर नीचा हुआ और संत रविदास की जयकार-जयकार होने लगी और तभी से यह दोहा भी प्रचलित हो गया कि मन चंगा तो कठोती में गंगा।

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