सब पत्थर के टुकड़े निकले

हम जिनको समझते थे हीरे,  सब पत्थर के टुकड़े निकले..!  चेहरे पे मुखौटा था सबके,नकली सबके मुखड़े निकले..!! खिलते गुल जैसी सूरत थी, पर दिल के सारे काले थे, चेहरे की नुमाईश करते थे,सब भड़कीले कपडे़ निकले..!! पिंजरे में रखा था उनको, सोंचा एक दिन गुर्रायेंगें, पाला था शेर समझ करके,मासूम वे सब बछड़े निकले..!! रख करके उनके शाने पर, हम अपना दुखड़ा रो लेते, आँखों में अश्क़ भरे थे सब,उनके अपने दुखड़े निकले..!! सरहद पे कौन हुआ घायल, ये तय कर पाना मुश्किल था, "वीरान" कफ़न में लाश न थी,बस थोड़े चिथड़े निकले..!! 

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