आरक्षण-नीति समीक्षा: संघ-प्रमुख सहित कई नेताओं, विद्वानो की मांग कब सुनी जाएगी ?

पिछले करीब तीन दशकों से 'पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण' राजनीति में कुछ खास जातियों का समर्थन पाने का एक बड़ा आसान उपाय बन गया है | मंडल कमीशन के जरिये चला यह मुद्दा राजनीति का एक बड़ा खास, स्थायी मुद्दा बनकर उभरा | मोदी सरकार के कार्यकाल में अब तक सबसे अधिक भीड़ जुटाने वाला और सुर्खियां बटोरने वाला आंदोलन रहा गुजरात की एक अगड़ी जाति पटीदारों का आरक्षण के लिए खुद को पिछड़ों में शामिल करवाने के लिये किया गया आंदोलन | इसके बाद आरक्षण का मुद्दा फिर से लाइमलाइट में आ गया | विशेषकर इसलिए भी कि इस आंदोलन के युवा नेता हार्दिक पटेल की मांग यह है कि "या तो हमें भी आरक्षण दो या फिर किसी को मत दो"| इसके पहले गुर्जर और जाट भी आंदोलन करके कही-कुछ आरक्षण पा चुके है, कहीं-कुछ और पाना चाहते हैं | इसके बाद राजपूत समाज एवं कुछ अन्य संस्थाओं ने स्थानीय स्तर पर जाति-आधारित आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन भी किये | इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण घटना रही, सत्तारूढ़ दल भाजपा को सैद्धांतिक मार्गदर्शन देने वाली संस्था आर एस एस के शीर्ष नेता संघ-प्रमुख मोहन भागवत द्वारा एक पत्रिका Organizer को दिए साक्षात्कार के दौरान कही गयी बातें | 

उन्होंने आरक्षण-नीति की समीक्षा की आवश्यकता जताई और इसके लिए एक अराजनीतिक समिति के गठन का सुझाव दिया | उनकी अपेक्षा है कि वह समिति यह देखे कि किस जाति/ वर्ग को कितने आरक्षण की जरुरत है और कितने लम्बे समय तक ? साथ ही उन्होंने यह सच्चा अहसास भी व्यक्त किया कि जाति-आधारित आरक्षण नीति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रही है | एक ओर तो यह माना जाता है कि वर्तमान केंद्र सरकार का रिमोट आर एस एस मुख्यालय में रहता है | वहीं सरकार ने संघ-प्रमुख के इस सार्वजनिक बयान से अगले ही दिन दूरी बना ली | चूँकि सरकार को डर लगा कि मोहन भागवत के इस बयान से बिहार के आसन्न चुनावों में भाजपा के नतीजों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा | ऐसे में इस बयान को एक दूसरे ही छोर से अनपेक्षित समर्थन मिला | वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री मनीष तिवारी ने कहा कि अब आरक्षण नीति की समीक्षा जरुरी हो गयी है | उन्होंने तो बताया कि इस आशय का एक लेख उन्होंने पंद्रह दिन पहले ही लिखा था | यहाँ तक प्रश्न उठाया था कि क्या अब 21 वी सदी में भी हमें आरक्षण की आवश्यकता रह गयी है ? उनका कहना था कि पहले तो यह देखा जाये कि क्या आरक्षण वास्तव में आवश्यक है और यदि यह आवश्यक है तो फिर इसका आधार जाति नहीं आर्थिक स्थिति होना चाहिए | 

इसके पहले भी वरिष्ठ कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी और बेनीप्रसाद वर्मा अलग अलग मौकों पर इसी आशय की राय व्यक्त कर चुके हैं | वरिष्ठ भाजपा नेता सुबृह्मण्यम स्वामी की भी यही राय है | पर विडम्बना यही है कि देश की इन दोनों शीर्ष पार्टियों में जब भी कभी कोई इस प्रकार की भावना प्रकट करता है तो इन दलों का हाइकमान इन बयानों को इन नेताओं के व्यक्तिगत विचार बताकर इनसे अपना पल्ला झाड़ लेता है | नेताओं केअलावा कई शिक्षाविद और विद्वान भी समय-समय पर इस आरक्षण नीति की आलोचना करते रहते हैं | किन्तु दोनों ही पार्टियां इस बात से आशंकित हैं कि यदि उन्होंने जातिगत आधार पर आरक्षण से हटने की बात की तो जिन जातियों ने आरक्षण के जरिये कम योग्यता से भी नौकरियां पा लेने की उम्मीद लगा रखी हैं वे उनसे नाराज हो जाएगी | इसी डर के कारण वे ऐसे बयानों को नजर-अंदाज करती रहती हैं | यदि इन पार्टियों का यही रवैया रहा तो यह देश आखिर कब तक इस गलत आरक्षण नीति के दुष्परिणामों को भुगतता रहेगा ? संघ-प्रमुख और अन्यों की फ़िलहाल तो मांग केवल इतनी ही है न कि इसके परिणामों की और सुधार की जरुरत की समीक्षा होनी चाहिए | इसे कोई कैसे,क्यों गलत कह सकता है ? रही बात आरक्षण के आधार को जाति के बजाय आर्थिक स्थिति को बनाने की, तो सभी तर्क इस बदलाव के पक्ष में जाते हैं | 

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जब कभी किसी जाति या संप्रदाय के अगड़े या पिछड़े होने का आकलन किया जाता है तो सभी प्रमुख आधार उसके लोगों की आर्थिक स्थिति से सम्बंधित ही होते है | दूसरे शब्दों में जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं उन्हें ही तो पिछड़ी जातियां माना जाता है | यानि यदि आधार बदल भी दिया गया तो भी वर्तमान में आरक्षित जातियों के वास्तव में जरूरतमंद लोग ही उसके सबसे बड़े लाभार्थी बने रहेंगे | बस फर्क यही होगा कि इन जातियों के जो परिवार असल में विकास की दृष्टि से ऊपर उठ चुके हैं, यानि क्रीमी-लेयर में आ चुके हैं उन्हें इसका लाभ नहीं मिलेगा और वह लाभ इन्ही जातियों के असली हक़दार लोगों को मिल सकेगा | दूसरा फर्क यह होगा कि जिन जातियों को अगड़ा माना जाता है उनके भी जो गरीब या जरूरतमंद लोग हैं उन्हें भी आरक्षण के जरिये उन्नति का अवसर मिल सकेगा | अब इसे कोई कैसे गैर-वाजिब कह सकता है | इसीलिए प्रश्न उठाया गया है कि जब गरीबी जाति नहीं देखती है, तो आरक्षण क्यों जाति देखकर दिया जाये ? हाँ, जातिगत पिछड़ेपन का कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक व मानसिक दुष्प्रभाव भी है; जिसके कारण नीची जाति के गरीब, ऊँची जाति के गरीब की तुलना में कुछ हानि की स्थिति में माने जा सकते हैं | 

परन्तु, उसका वाजिब और आसान हल यह है कि जहाँ कही अन्य सभी नजरियों/ आधारों पर दोनों तरह के गरीब उम्मीदवार सामान स्थिति में हो, वहां तुलनात्मक रूप से नीची या पिछड़ी जाति के उम्मीददवार को प्राथमिकता दी जाये | लेकिन मुद्दे का पिन-पॉइंट यह है कि जब हमारा शीर्ष नेतृत्व संघ प्रमुख और कई बड़े नेताओं की बात को हाशिये पर डाल रहा है, पटेलों व अन्य जाति-संगठनों के आंदोलनों को नजर-अंदाज कर रहा है, तो फिर वह कब और कैसे इन वाजिब बातों पर गौर करेगा ? इसके लिए युवाओं का जाति और प्रान्त से ऊपर उठा हुआ देश-व्यापी आंदोलन खड़ा होना आवश्यक हैं | देश को अब ऐसे ही स्पष्ट नजरिये वाले आंदोलन की आवश्यकता भी हैं और इंतजार भी |

हरिप्रकाश 'विसंत'

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