कहा खो गए वो बचपन के खेल...??

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो..

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी..!!

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन..

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी..!!

बचपन पर आधारित ये पंक्तियां सामने आते ही हम इन्हे गुनगुनाने पर मजबूर हो जाते है. ना चाह्ते हुए भी उन मीठी यादों में खो जाते है जिन्हे कभी हमने खुलकर जिया था. वो बचपन के दिन भी बड़े ही खुशनुमा होते थे. ना कमाने की चिंता ना किसी चीज का डर. बस सुबह से शाम तक मन के आधार पर मिटटी के खेल खेलना. वो कांच के कंचे, वो गिल्ली-डंडा, वो गुड्डा गुड्डी का खेल.

आज इन सबको याद करके आँखे नम हो जाती है लेकिन खुशियों से. आज जब कभी इन खेलों को याद करो तो दिल भर सा जाता है. ऐसा अहसास होता है जैसे कल की ही बात है. कल ही हम मिटटी में इन खेलों का आनंद ले रहे थे और आज ये खेल खोजने पर भी आँखो को दिखाई नहीं देते है. आज बच्चों को मिटटी के खेल नहीं अपितु मोबाइल के खेल अधिक पसंद आने लगे है, आज वे मिटटी के उस अहसास को महसूस करने की बजाय तंत्र की इस दुनिया में उलझ से गए है.

समय की बात करे तो एक वक़्त वह था जब सुबह के साथ ही बच्चों की आँख खुल जाती थी और कही कंचे तो कही गिल्ली-डंडे के साथ शुरू होती थी. कही पतंगबाजी तो कही कोई अन्य खेल बच्चे को ना केवल अपने पास खींचता था बल्कि उसे फिर घर ना लौटने पर भी मजबूर करता था. लेकिन अब कहीं वह आलम नजर ही नहीं आता. आज बच्चा उठता भी है तो माँ की डांट सुनकर, खेलता भी है तो बस टेलीविजन, कंप्यूटर और मोबाइल के साथ. कही ना कही परम्परा लुप्त सी होती दिखाई देने लगी है.

अब आँखों को वो खेल ठंडक नहीं दे पाते, कहीं बच्चे मिटटी में खेलते नजर नहीं आते. आज गांव शहरो में तब्दील हो रहे है और इसके साथ ही सभ्यता पर भी हलकी धूल की परत जम रही है. जहाँ कल तक मिटटी की महक नजर आती थी वह आज इमारतों के बीच दब सी गई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि आज ये खेल लुप्त हो गए है, आज भी यदि हम गाँवो की गोद का रुख करते है तो वहां बच्चे मिटटी में लथपथ इन खेलों में मशगूल देखने को मिलते है. आज भी वहां सुबह का आगाज मिटटी की सौंधी खुशबु के साथ होता है और दिन चढ़ने के साथ ही खेलों की खूबसूरती भी बढ़ने का अहसास होता है.

गांव के वे खेल जिनमे कच्चे घर, सितौलिया, झूला-झुलाई,छुपम-छुपाई आदि शामिल है आज भी यहाँ देखने को मिल जाते है. जो आज भी हमें अहसास करवाते है कि हमने क्या जिया है. आज भी गांव और शहर की हवा में बहुत फर्क मौजूद है या कहे तो गांव में आज भी मिटटी की सुगंध है जो खेलो की तरफ हमें खींचे चली जाती है. जबकि शहर में अब केवल सीमेंट की खुशबु है जहाँ चाहकर भी वह अहसास नहीं आता. मिटटी के उन खेलों को याद करना भी एक सुखद अहसास से कम नहीं है. तो आइये फिर से कही पेड़ों की ठंडी छाव में, गांव के उन खेलों में गूम हो जाए और फिर से जिंदगी को जिंदादिल बनाए.

हितेश सोनगरा

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