इंदौर की सड़कों से भी कम हो कारों का बोझ...

जरुरी है एक दृंढ इच्छाशक्ति की...एक विवेकशील फैसले की...एक कठोर निर्णय की...जो दिल्ली ने किया वह इंदौर में करना चाहिए. और उससे भी आगे बढ़कर कुछ सोचना चाहिए. शहर संकरा हो चूका है..और वाहनो का काफिला बड़ा...हर दिन प्रतिदिन नए नए वाहन शहर की सड़को के परिवार में शामिल हो जाते है...उनके घर तो होते नही वो सड़कों पर ही डेरा जमाते है...दिन तो दिन इस शहर में तो रातों में भी कारों के बाजार सड़कों पर नजर आते है.

कारे सस्ती है पार्किंग मुफ्त की...सबकी अपनी आन-बान-शान का परिचय समाज को बताने के लिए एक अदद कार का तमगा अपने सीने पर लगाने के लिए सस्ता शोक उमड़ रहा...हर शख्स कार ही नही बल्कि कारों की कतार का मालिक बनने के जूनून में शामिल हो रहा है...दोपहिया वाहन और लोक परिवहन में चलने का प्रचलन समाप्त हो चूका है.

यदि कोई इन दोनों ही साधनो का उपयोग करे तो उसे छोटा समझा जाता है...उसका सामर्थ्य उसे ललकारता है...शहर में चार कदम की दुरी भी वो कारों से ही नापता है.कार के बिना इस शहर का हर बाशिंदा खुद को बेकार मानता है...लिहाजा कारे बढ़ रही है...प्रदूषण फैल रहा है...शहर में चारो और धुप,धूल और धुँआ नजर आता है, क्योंकि इस शहर के बारे में सोचना हर कोई पाप मानता है.

जनप्रतिनिधि पांच साल में एक बार वोट मांगने के लिए आता है...वोटो के लिए वो गेट से लेकर गटर तक के वायदे करने से भी बाज नही आता है...लेकिन बाद में पांच साल वो मोहल्ले से लेकर गली तक में नजर नही आता है...फिर वो शहर के बारे में सोचने व बोलने का तो साहस ही नही कर पाता है... 

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