सहिष्णुता और असहिष्णुता की लड़ाई का असली गुनगार

लेखको, साहित्यकारों, इतिहासकारो, कलाकारों, फिल्म निर्माताओ, वैज्ञानिको आदि के अपने अवार्ड इसे लौटाने को इंसानी सभ्यता का विवेक कहे या चातुर्य, जो सभी जीव-जन्तुओ में श्रेष्ठ होते हुए भी नासमझी कर जाता है और दो भागो में बट जाता है | यहाँ की पूरी सभ्यताएँ, व्यवस्थाये सिर्फ दो पाटो के मध्य बट जाने पर ही टिकी रहती है|

देवता-दानव, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, समर्थक-विरोधी, पक्ष-विपक्ष और अब नया राग सहिष्णुता-असहिष्णुता| इस बार मामला शुरू हुआ शाकाहारी-मांसाहारी से जो आगे बड़ा प्रतिक्रिया में अपने आप सजा देने से व उत्पन हुई हर सोच को अपने-अपने झुण्ड/समूहों के नारों और शोरगुल से दबाने से| आगे यह कारवा धर्म को ढाल बनाके कट्टरता का चोला ओढ़ आगे बढ़ा| इतने में राजनीती नासमझ की मशाल लिए कूद पड़े स्वयंभू ठेकेदार और अपने-अपने धर्म की किताबो को खोले व पढ़े बिना| सिर्फ उपर का फोटो दिखा अपने कर्म व निर्णय को न्यायोचित ठहराने से| इसके बाद बारी आ गई राजनेताओ की जिन्होंने हर मुद्दे की तरह मुँह की अग्नि से भीड़ के बीच रास्ता बना दिखावी हवो के सहारे "अपनी पार्टी की सरकार" व "हम तो विपक्ष के है इसलिए उल्टा ही बोलेगे" के चाबुक से और असली धर्मगुरुओ और ज्ञानियो को पीछे धकेल सबसे आगे आकर अपना-अपना झंडा लगा लेने से|

लोकतंत्र में जनता के उपर राज करने की नीति से अपने दामन के कीचड़ को दूसरे के दामन के कीचड़ से स्वच्छ बताने व अपनी ईज्जत बनाने के लिए दुसरो की ईज्जत बिगाड़ने के आधुनिकता वाले इलेक्ट्रॉनिक, सैटेलाइट तरंगो की विज्ञान वाली रफ़्तार से अच्छे-अच्छे लेखक, साहित्यकार, इतिहासकार, फिल्म निर्माता, फिल्म कलाकार, वैज्ञानिक चपेट में आ गये और कई तो "समय" के बारे में लिखने के काम से "समय" को निर्धारित का लेने के गुरुर में स्वयं आगे आकर भीड़ गये व साथ में अपने अवार्डो को बहस में घुसने का मुफ्त में हासिल करा पास बना लिया|

इतने में इंटरनेट के महारथी व शूरमा भड़क गये जब कईयों ने दूसरे देश का वीजा व पासपोर्ट लेने का दम भरा| यह सहिष्णुता व असहिष्णुता के बवंडर से उठता तूफान यदि आगे बढ़ता जायेगा तो अपने अन्दर कितनो को व सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक तजुर्बों को धवस्त कर देगा ये आपसे बेहतर कौन जानता है| सोच के बढ़ते दायरे, तकनीक के खिलते फूलो व ज्ञान के खुलते चक्सुओ के मध्य अपने-अपने धर्मो के सदमार्गो पर चलते रहने पर कहा भूल हो गई या कौन पटरी से उतर गया जिससे "संविधान" के रूप में दर्ज पूरी व्यवस्था भी अब "असहाय" दिखने लगी है| 

विज्ञान के आधार पर इसके दोषी करीबन दो हजार से ज्यादा सैनिको के मेडल लौटा देने के बाद भी कर्म एवं दायित्व से दूर भागते संविधान संरक्षक, सेना के अधिपति माननीय राष्ट्रपति महोदय है जो सहिष्णुता व असहिष्णुता के नाम पर अवार्डो को वापस लेकर देश की जनता एवं आजाद भारत के संविधान पर बोझ रखते चले गये व इसके नीचे आम नागरिक के घुटते दम को भी नजरअंदाज कर डाला| राष्ट्रपति महोदय ने इस पर कई सार्वजनिक टिप्पणियाँ करी| हमें ये करना चाहिए, वो करना चाहिए| हद हो गई आप तो जनता को ये बताने लग गये की आप को तो मालूम ही नहीं की आप "राष्ट्रपति" है|

इसलिए आप ये नहीं बोलेगे की इसे खत्म करने के लिए आपने क्या किया और आगे क्या कर रहे है? जो करना है वो "सरकार" ही करेगी राष्ट्रपति तो सिर्फ उसकी सलाह पर ही चलेगा तो इसे 21वी सदी के विज्ञान युग में तकनिकी तौर पर सामाजिक इंजनियरिंग में " मन व दिमाग की गुलामी वाली मानसिकता" कहते है| संविधान के आधार पर राष्ट्रपति महोदय क्या कर सकते थे उसके चन्द उदहारण देखिये| 

सबसे पहले जिन्होंने अवार्ड लोटाये उन्हें डाक नहीं हाथ में लेना चाहिए था और साथ में प्रतिरात्मक रूप में "उल्टा भारत का तिरंगा" भी ताकि देने वाले, देखने वाले, दिखाने वाले, अपनी प्रतिक्रियाओ से ज्ञान बरसाने वाले, जिम्मेदार पदो पर आसीन व आम जनता को भी आभास हो यह महज कागज व धातु के टुकड़े नहीं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का गौरव भी है| जिन सम्मानीय लोगो ने बिना कारण बताये अवार्ड लौटाये उन्हें दुबारा भेज, कारण साथ में लाकर देने को कहना चाहिए था| इसके बाद "प्रधानमंत्री" को बुला इस पर कैबिनेट की मीटिंग बुला लिखित में स्पस्टीकरण निश्चित समयावधि में मांग लेते| उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश से संविधान के आधार पर अवार्ड लौटने के कारणों पर न्यायिक राय मांग लेते व मीडिया के माध्यम से जनता को वस्तुस्थिति के साथ समय के अनुरूप जोड़े रखते व सच को सरकार के अतिरिक्त्त अन्य रूप से भी परखते|

सरकार के माध्यम से विवादित घटनाओ पर कानून कार्यवाही की रिपोर्ट व न्याय करने का सच इन घटनाओ का प्रतिशत देश में होने वाली समरूप कुल घटनो का तुलनात्मक आकड़ा रख अपने दायित्व का विश्वाश दिला पुनः विचार के लिए सभी अवार्ड लौटा देते| यदि इनके कारणों में सच्चाई दिखती तो सरकार को संवेधानिक तौर पर निश्चित समयावधि में मुख्य न्यायाधीश के निरक्षण में कार्यवाही कर संविधान की मूल भावनाओ को बनाये रखने का कहते|

इसके बाद भी वस्तुस्थिति पर मीडिया के माध्यम से जनता की राय अनुचित आती तो सरकार को एक निश्चित समय दे उसे बर्खास्त कर देने की चेतावनी दे सकते थे| यदि किसी ने झूठ, गलत, साजिश, बहकावे में अवार्ड लौटाये है तो उन्हें कोई सजा नहीं देनी चाहिए व देश में सम्मानपूर्वक पहले के भाती ही रहने का सार्वजनिक राष्ट्रीय पत्र घर भेजना चाहिए क्योकि ऐसे मार्ग भी बन्द होने लगे तो फिर मार-काट, खून-खराबा, लड़ाई-झगड़े व गृह-युद्ध व अपने विवेक से निर्णय ले लोगो की हत्या करने के अलावा कोई मार्ग नहीं बचेगा| 

जिस भूमि में पैदा हुये, उसके लिए कर्म कर जनता के दिल में जगह बना अवार्ड प्राप्त किया उस राष्ट्र को उसका झण्डा उलटा कर लौटाना किसी कठोरतम सजा से कम नहीं है| अवार्ड लौटने के कारण सही होने पर पुनः राष्ट्रीय गौरव व संवैधानिक प्रमाण-पत्र के साथ पुनः अवार्ड उनके घर जाकर स्वयं राष्ट्रपति महोदय लौटाते| ऐसे विरले इस भूमि पर कम ही जन्म लेते है जो "राष्ट्र-भक्ति" के आगे पूरी कायनात से लौहा ले लेते है| अभी भी वक़्त है, देश भक्तो के लहू से सीची समय की माटी को मुट्ठी से न फिसलने दे|

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