जातिवाद दोहरा हो गया है - जातिगत आरक्षण से

भारतीय समाज और संस्कृति की सबसे बड़ी बुराई या यों कहे कि हजारो साल से चली आ रही सबसे बड़ी बीमारी है – जातिवाद | यह ऐसी बीमारी है जिसने हमें अनेक टुकड़ों में बांटकर रखा हुआ है; परस्पर भेदभाव, उंच-नीच, दम्भ और द्वेष से भरे हुए टुकड़े | एक खास जाति-वर्ग पर ही राष्ट्र-रक्षा का दायित्व होने से और आपसी फुट के कारण यह देश हजारो साल गुलाम भी रहा और हर तरह से कमजोर भी हुआ | क्योंकि अवसरों की समानता, वंश-निरपेक्षता, न्याय और सामाजिक समरसता के मूल्यों को जातिवाद ने सही मायने में पनपने ही नहीं दिया | लेकिन अफसोस की बात है कि आज भी हमारे देश में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जातिवाद का समर्थन करने वाले या जातिवादी संगठन बना कर जातिवाद की बीमारी को फलने-फूलने का माहौल देने वाले लोग ही अधिक हैं | जातिवाद के कारण पैदा हुई सामाजिक विषमता को काम करने के लिए और वंचित- दलित वर्गों तक भी उन्नति के अवसर पहूँचाने के लिए 'जाति-आधारित आरक्षण' का उपाय सोचा गया |

इसे लागू करवाने के पीछे हमारे कई तत्कालीन महान नेताओं का सोच यह भी था कि हमारे समाज में जातियों के आधार पर व्याप्त शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन को भी कम करेगा और समाज में एकता व समरसता लायेगा | परन्तु, आज जब हम करीब साठ वर्षो से जारी इस आरक्षण व्यवस्था के परिणामों को देखते हैं, तो पाते हैं कि इससे अपेक्षित परिणाम मिले नहीं; बल्कि सामाजिक एकता व समरसता पर तो बहुत विपरीत ही प्रभाव पड़ा | देखा जाये तो जाति-व्यवस्था भी पूरी तरह से वंशानुगत आरक्षण की ही प्रणाली थी | इसका प्रारम्भ वर्ण-व्यवस्था के रूप में हुआ था; जो कहने को तो कर्म-आधारित थी; किन्तु कोई भी सामाजिक विभाजन कर्म-आधारित चल ही नहीं सकता है | इसलिए वह स्वाभाविक रूप से हमेशा जन्म-आधारित ही रही | जिसमें राज्य का शासन व रक्षा करना क्षत्रियो के लिए, रीती-रिवाज, कर्मकांड, शिक्षा आदि ब्राह्मणो के लिए, व्यापार-उद्द्योग आदि वैश्यों के लिए 100% आरक्षित थे | शेष कार्य वंचित लोगों के जिम्मे थे, जो वास्तव में उत्पादक व श्रम-साध्य कार्य थे, जिन्हे इन तीन उच्च वर्णो की सेवा हेतु बताया गया था | बाद में इन्ही वर्णो से अनेको जातियाँ बन गई |

शूद्र जातियों को शिक्षा का हक़ ही नहीं दिया गया | इस 100% जन्म-आधारित आरक्षण की व्यवस्था में तो प्रतिभा/ अभिक्षमता, परिश्रम आदि गुणों के जरिये उन्नति के रास्ते ही बंद थे | आज की आरक्षण व्यवस्था उतनी बुरी तो नहीं है; लेकिन जिन आधारों पर जाति-व्यवस्था बुरी थी, उन्ही आधारों पर यह भी बुरी और अन्यायपूर्ण है | इस जाति-व्यवस्था ने एक असंतुलित और विद्रूप समाज व संस्कृति का निर्माण किया| समाज के इस दोष के कुप्रभाव को कम करने और कुछ संतुलन लाने के लिए जातियों के उलट-आरक्षण को लाया गया| यह क्रमशः कैसे बढ़ता गया और मंडल कमीशन की इसमें क्या भूमिका रही इसका एक सामाजिक-राजनैतिक व मनोवैज्ञानिक इतिहास है | उस लम्बे इतिहास का लब्बो-लुआब यह है कि आरक्षण को कई राजनेताओं ने वंचित और पिछड़ी जातियों का समर्थन पाने के सरल हथियार की तरह इस्तेमाल किया | जिससे जातियां और जातिवाद अधिक प्रासंगिक होकर ताकतवर हो गये |

आरक्षण से जातिवाद को नयी ताकत मिल गयी और यह एकता - समरसता लाने के बजाय समाज को और अधिक बाँटने व लड़ाने का कारण बन गया | आरक्षण का सबसे अफसोसनाक पहलू यह है कि इसने सभी आरक्षित जातियों में एक और वर्ग का निर्माण कर दिया, जिसे हम आमतौर पर क्रीमी-लेयर कहते हैं | वंचित व पिछड़ी जातियों में से जिस-जिस को आरक्षण का लाभ मिला, उसका परिवार अगड़ा बन गया, पर उसकी संततियों का जातिगत आरक्षण का अधिकार कायम रहा | इसलिए वह परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठाने लगा | इससे उस जाति के शेष लोगो तक इसका लाभ पहुँचना मुश्किल हो गया | इस प्रक्रिया ने तो एक और नए जातिवाद को जन्म दे दिया | इससे नए आधार पर चार प्रकार के वर्ग या समुदाय बन गये: 1) आरक्षण प्राप्त जातियों की क्रीमी लेयर, 2) आरक्षित जातियों का अब तक वंचित वर्ग, 3) अगड़ी या सवर्ण जातियों का संपन्न वर्ग जिसे आरक्षण होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, 4) अगड़ी जातियों का विपन्न वर्ग जिसे कोई सहयोग व आरक्षण नहीं मिलता |

इसके आलावा आरक्षित जातियों में भी एक और विभाजन है | एक ओर है अनुसूचित जातियां व अनुसूचित जन-जातियां, जिन्हें सभी जगह प्रथम श्रेणी का आरक्षण प्राप्त है | दूसरी ओर है अन्य पिछड़ी जातियां, जिन्हें कुछ कम या दूसरी श्रेणी का आरक्षण मिला है | इन विभाजनों के ऊपर भी कुछ अति-पिछड़ी जातियां है कुछ कम पिछड़ी; कुछ अति-दलित है, कुछ कम दलित | यानि कुछ पुराने आरक्षण (जातियां) व नए आरक्षण के सम्मिलित प्रभावों से बने हुए वर्ग हैं | अर्थात भारतीय समाज एक तो पहले ही जाति-व्यस्था के चलते बंटा हुआ था और अब आरक्षण के कारण उसमें नए विभाजन या दोहरा जातिवाद पैदा हो गया है | भूत तो भागा नहीं, भोपे ने भी घर में डेरा डाल लिया |

इस तरह बने हुए वर्गों के बीच मात्र दुराव नहीं बल्कि विद्वेष की भावनायें बढ़ रही हैं | पहले गुर्जरो व जाटों के आंदोलन और अब पटीदारों का आंदोलन हमारी जाति के आधार पर अगड़े-पिछड़े होने की धारणाओं को हिलाकर रख चुकी है| इसके बाद अन्य कई जातियां भी आंदोलन की तयारी कर रही हैं | यह सारा घटनाक्रम खतरे की घंटी बजा रहा है; जिसे सुन-समझ कर यदि हमने अब भी अपनी नीतियों में आमूल-चल परिवर्तन नहीं किया तो तो न तो देश में कभी समता व न्याय की व्यवस्था आएगी, न सामाजिक समरसता; बल्कि देश जातिगत विद्वेष व संघर्षों का स्थायी अखाडा बन जायेगा | इस समस्या के हल के लिए जरुरी है कि हम आरक्षण के लिए जाति को आधार न बनाकर, परिवार की आर्थिक स्थिति को इसका आधार बनाये | हाँ, यह गंभीरता से विचार करना होगा कि इतना बड़ा परिवर्तन करने से पहले अनुकूल स्थितिया कैसे बनायीं जाये | यह भी सोचा जा सकता है कि हम कुछ वर्षों के लिए कोई माध्यम मार्ग अपनाये और दो-तीन चरणों में क्रमशः आरक्षण को पूरी तरह आर्थिक आधारों पर कर दें | यह विस्तृत विचार का मुद्दा है इसलिए एक अलग लेख का विषय बनाना होगा |

हरिप्रकाश 'विसंत'

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