तुम पूर्णिमा का चाँद प्रातःकी विकसित सुगँध धूप की चकाचोध और ढलतीसाँझकी मदमात झपकीतुम तुम रागिनी अछपे स्वरो की दीप्ती इस गहरे अंधेरे व्योम की झाँककर फिर फिर मुझे यूँ देखती सी तुम तुम अनकहे कुछ शब्द हो दे रही कुछ बोध मेरे मान और सम्मान की सर्वस्विता सी तुम