नाकाम शाम तक गुज़रता है

कुछ और होने से ज़्यादा  या शायद बहुत ज़्यादा मुश्किल और बेमानी है ख़ुद में रहकर 'बेख़ुद' होना मैं अब 'मैं' कहाँ हूँ मैं तो कुछ और ही हूँ मैं 'वो' हूँ जो बेमकसद सुबह से नाकाम शाम तक गुज़रता है और उदास रातों पर ख़त्म हो जाता है मैं उस वीरान रास्ते सा हूँ जो सिर्फ काँटों का घर है भरा है सूखे झाड़ और जंगली फलों से जो सिर्फ दे सकता है कड़वाहट और जाता नहीं किसी मंजिल को मैं वो ऊँचा बड़ा पर्वत हूँ जो खड़ा है बस ख़ुद ही के लिए कोई रास्ता है और न कोई जीवन बस दूर तलक पसरा सन्नाटा और पार करने को भारी मुसीबत कुछ जान पड़ता हूँ समंदर सा भी जो धीर-गंभीर है किनारे पर पर लहरों में तूफानों का जज़्बा है गहराई में मोतियों के नज़राने हैं पर कोई नहीं चाहता पाना थाह को मेरे वजूद की सच्चाईयाँ ख़ुद मेरे लिए भी सवाल ही हैं सवाल, जो गहरे अंधेरों से हैं अँधेरे, जो निगल जाते हैं रौशनी को और मुझे छोड़ देते हैं फिर मेरे उन्हीं स्याह सच के घेरों में !

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