अम्मा की दुर्दशा : कविता के कैमरे से

रोज़ी-रोटी मिली शहर में, कुनवा ले आया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

ये कह-कहकर अम्मा पे, गुर्राय घड़ी-घड़ी। ‘कौन बनाके दे बुढ़िया को, चाय घड़ी-घड़ी?’

बेटे के घर बोझ बनी, माँ की बूढ़ी काया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

पत्नी की जंघा सहलाने, वाले हाथों ने। अम्मा के पग नहीं दबाये, दुखती रातों में।

रूप-जाल में कामुकता ने, इतना उलझाया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

माँसहीन हाड़ों पर सर्दी, ने मारे चाँटे। अगहन-पूस-माघ अम्मा ने, कथरी में काटे।

बहू, बहू है, बेटे को भी, तरस नहीं आया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

रात-रातभर ख़ाँस-ख़ाँसकर, साँस उखड़ जाती। नींद न आती करवट बदलें, पकड़-पकड़ छाती।

जीवन पर मँडराती, पतझर की काली छाया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

खटिया पर लेटीं अम्मा, सिरहाने पीर खड़ी। बहू मज़े से डबल बेड पर, सोये पड़ी-पड़ी।

क्या मतलब, अम्मा ने खाना, खाया, न खाया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। 

जितेन्द्र जौहर

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