रोज़ी-रोटी मिली शहर में, कुनवा ले आया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। ये कह-कहकर अम्मा पे, गुर्राय घड़ी-घड़ी। ‘कौन बनाके दे बुढ़िया को, चाय घड़ी-घड़ी?’ बेटे के घर बोझ बनी, माँ की बूढ़ी काया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। पत्नी की जंघा सहलाने, वाले हाथों ने। अम्मा के पग नहीं दबाये, दुखती रातों में। रूप-जाल में कामुकता ने, इतना उलझाया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। माँसहीन हाड़ों पर सर्दी, ने मारे चाँटे। अगहन-पूस-माघ अम्मा ने, कथरी में काटे। बहू, बहू है, बेटे को भी, तरस नहीं आया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। रात-रातभर ख़ाँस-ख़ाँसकर, साँस उखड़ जाती। नींद न आती करवट बदलें, पकड़-पकड़ छाती। जीवन पर मँडराती, पतझर की काली छाया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। खटिया पर लेटीं अम्मा, सिरहाने पीर खड़ी। बहू मज़े से डबल बेड पर, सोये पड़ी-पड़ी। क्या मतलब, अम्मा ने खाना, खाया, न खाया। मगर बहू को रास न आया, अम्मा का साया। जितेन्द्र जौहर बेटे की विदाई मातृ दिवस की शुभकामनाएं तथ्य कई हैं लेकिन सच एक ही है, जीवन में उतारे रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनमोल विचार