जिसकी न सीमा हो और न कोई उपमा हो, वह ही है माँ ।

वो ममता की मूरत है, सौम्य उसकी सूरत है। भावों का भंडार है , अनन्य जिसका प्यार है। होली है सतरंगी उससे, सब रंगों का मेल वो जैसे। दीवाली की है रौनक उससे, दीपों की वो लौ हो जैसे। मेरे सफ़र की साथी है वो, गर्दिशों की धूप का साया है वो। ख़्वाबों में हमेशा आयी है वो, जब भी दूर उससे पाया है ख़ुद को। अमृत का प्याला है 'माँ', पुहुप की सुरभि है 'माँ', राग की रंजकता है 'माँ', एक सम्पूर्ण महाकाव्य है 'माँ'। जिसकी न सीमा हो और न कोई उपमा हो, वह ही है "माँ"।                        ~ प्रेरणा गौर 

कभी किसी की खुशी का कारण बनो

कायनात सारी मिल जायेगी, एक पहल तो करनी होगी

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