मैं दर्पण हूँ

मैं दर्पण हूँ तुम्हारी ही छवि , तुमको दिखाता हूँ

मैं केवल , बाहरी ही आवरण तेरा बचाता हूँ

न जाने दर्द कितने , मन के भीतर तुम छुपाते हो

कभी अपनों की खुशियों के लिए , तुम मुस्कुराते हों

न जाने तुमने कितनी बार ही, खुद को सँवारा है

मगर सच जानना अपना , नहीं तुमको गँवारा है

तुम्हें समझाना चाहूँ मैं ,कभी भीतर भी झांको तुम

छुपा सौन्दर्य मन में भी , कभी उसको भी आँकों तुम

तुम्हारे मन के दर्पण पर, कही न धूल के कण हों

तुम्हारा जीवन हो निःस्वार्थ ,सेवा हो ,समर्पण हो

तुम्हारे भीतर के कटु सत्य को भी , जानता हूँ मैं

मिला करता हूँ तुमसे रोज़ सो , पहचानता हूँ मैं

अगर जो सत्य दिखला दूँ , तो मुझको छोड़ दोगे तुम

या फिर सम्भव हुआ तो शायद ! मुझको तोड़ दोगे तुम

तभी जो प्रिय लगे तुमको वही केवल दिखाता हूँ

मैं केवल , बाहरी ही आवरण तेरा बचाता हूँ.......

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