क्यूँ मुझसे ही रूठे जा रही हो

ज़िंदगी तुझसे ख़फा मै तो नहीं था, फिर तुम क्यूँ मुझसे ही रूठे जा रही हो . तुम ही इक जीने का मेरे थीं सहारा, तुम ही अब दामन छुड़ाए जा रही हो. इस जहाँ मै हर तरफ तूफान हैं न किसी के रूप की पहचान हैं हैं नहीं कीमत यहाँ रिश्तों की कोई हर कोई खुद ही बना भगवान हैं . ऐसे आलम मेँ हर दोष तो अपना नहीं था, रात दिन फिर क्यूँ रुलाये जा रही हो . दर्द के अंधेरों मेँ जीना चाहता था ख़ुशी की रौशनी भी तुमने ही दिखाई, मंज़िले आगाज़ करके नूर से, रौशनी खुद ही बुझाए जा रही हो !!!

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