क्यों सूली चढ़ा जा रहा

क्यों सूली चढ़ा जा रहा, क्या तू कोई ईसा है ? यह क्या कम है, कानों में दुनिया उँड़ेलती सीसा है ! लोग तरक्की करते-करते कितने आगे निकल गए, तू क्यों कहता दौर हमारा गुज़री हुई सदी-सा है । कल तक तो वह चेहरा था कश्मीर की घाटी-सा सुन्दर, अब वह चेहरा चक्रवात में उजड़ा हुआ उड़ीसा है । तू उस ईश्वर की तलाश में कहाँ-कहाँ पर भटक रहा, सच तो ये है, तेरा घर ही क़ाबा और क़लीसा है । बिस्मिल्लाह ने शहनाई में कैसा जादू घोल दिया, फिर बरसों के बाद अचानक ज़ख़्म पुराना टीसा है । रौंदे हुए शहर के लोगों के मेले क्या, उत्सव क्या, रातें पहियों ने कुचली हैं, दिन चक्की ने पीसा है । एक हवा का झोंका है वो, तपते हुए मरुथल में, इस रेतीले महानगर में, उसका नाम नदी-सा है ।

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