उजले ख़्वाबों के तले कुछ अंधेरे घने हैं ख़ामोश सहमे परिंदों की बेचैन सी उड़ानें हैं चारों तरफ बस नाचता हुआ कोलाहल है दौड़ते-भागते लगते बदहवास लोग हैं होती थी ख़ूबसूरत पहले कभी दुनिया भी स्वार्थ के तराज़ू में तुलते हुए आज लोग हैं बीते वक़्त के साथ क्या कुछ नहीं बीता न लोग ही रहे वैसे और न पहले से एहसास हैं गाढ़ा दिखाई देता पसीना दरअसल मक्कारी है सबकी मैं भी कहाँ पाक-साफ बचा थोड़ा ख़ुदगर्ज़ तो मैं भी हूँ अपने आप की ख़ातिर अपने ही पीछे रह गए झोले में पत्थर भर लिए और नगीने कीमती छूट गए मेरा अपना आज बीते कल के दौर को बचपन की भोली मासूमियत को फिर सहेजना चाहता है आज जोश है; जवानी है साथ हिम्मत की रवानी है पर न वो बचपन है और न परियों की कहानी है आईना भी हर सुबह मुझसे आँख चुराता है इन सबका हिस्सा होने पर मुझे बेशर्म कह धिक्कारता है पूरी नस्ल ही हमारी जैसे अजीब हो चली है आधुनिकता की दौड़ में सभ्यता कहीं खो चली है !