करता सवाल आईना, कौन तुम 'वीरान' हो, रोज मिलता हूँ मगर,तुझसे मैं अन्जान हूँ..!! क्या तआरुफ़ अपनी दूँ, मैं कौन सा इंसान हूँ, एक जिन्दा लाश की,बस रुह मैं वीरान हूँ..!! हाँ कभी आकर बहारें, द़र मेरा था चूमती, आज दो लफ्जों की,सिर्फ एक पहचान हूँ..!! ये ग़ज़ल औ शायरी, जख़्म सीने के मेरे, शायर नहीं अश्कों की,एक खुली दुकान हूँ..!! नज़्म कागज़ पे मेरी है, खुद बिखर के बोलती, खुशनुमां हैं लफ्ज़ तेरे,कहते हो 'वीरान' हूँ..!!