कहूँ तो कोयल की तरह

क्यों कहूँ... किसको कहूँ... कब कहूँ... कब न कहूँ... कुछ कहूँ... या कुछ न कहूँ कहूँ...तो कोयल की तरह... बस... कुहुँ कुहुँ... कहूँ... क्योंकि, कुहुँ-कुहुँ... कोयल की बस, अच्छी लगती है मन भाती है। कर्कश वाणी... कागा सी... किसके भाती है मन फिर, क्यों... पुकारते है...  पुरखों-पूर्वजों के लिए... दो ग्रास के लिए... मीठी वाणी... बोली...जीवनभर... फिर भी... दाना न मिला.. शक्कर का चुटकी भर... कुछ न मिला... अंजुली भर... फिर, कहे की कुहुँ-कुहुँ फिर, काहे की चिहुँ-चिहुँ।

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