जो परिचित सा लगता है

वो अपरिचित! है कौन ये जो परिचित सा लगता है हाँ पता है उसका नाम, काम, और पता पर नहीं पता है उसकी उदासियों का राज नहीं पता उसकी मुस्कुराहटों का पता और कहाँ मालूम है मुझे वह क्यों रहता है खामोश। हाँ इतना जरूर जानती हूँ कि जैसे चाहता है वह कुछ कहना पर पता नही कौन है जो रोक देता है उसके लबों को। कभी लगता है वहम है ये मेरा पर कुछ तो है जो है उसके और मेरे दरम्यां....... क्या यही तो सुनना है उससे वैसे दोस्त है हम पर  नहीं कह सका वो तो ये भी। और मैं लग रहा है जैसे खिंच रही हूँ उसकी तरफ एक अदृश्य डोर से चुम्बक की तरह  खींचती है उसकी ख़ामोशी जैसे कि बस लबों पर कुछ आये उसके और मैं कर लूँ मुट्ठी में बन्द इतना परिचित हो जाऊँ कि समझ सकूँ उसकी अनकही बाते इतनी कि वो बारिश में हो और  मैं भीग जाऊँ  इतनी परिचित कि हवा छुए मेरे चेहरे को और आँखें उसकी बन्द हो जाएँ सुकून से! साथ होता है तो लगता है जैसे कि बिठा दिया है किसी ने तेज झूले में मुझे जबकि सच कहूँ तो डरती हूँ बहुत झूलों से पर वो है न  उसकी हंसी गिरने नही देती  जैसे बस उड़ रही होती हूँ। हाँ नहीं होता फिल्मों की तरह  पीछे चलने वाला मद्धिम संगीत पर उसके साथ सरगम खुद जैसे छेड़ देती है अपनी हर धुन को होंठ खामोश होते हैं पर मन ये आवारा की तरह बेफिक्र नाचता है हालाँकि डरती हूँ कि  उसकी कोरी हंसी तूलिका बनकर रंग न दे  मेरे मन के कोरे कागज को जिसे करीने से सम्हाल के रखती आई हूँ अब तलक! पर जब वो होता है  तो जैसे शून्य होता है सब सोच ही नही पाती कुछ बस आजाद होती हूँ हर डर से। कभी लगता है कि  जानता है वह सब और कभी बिलकुल अपरिचित! जो भी हो  कभी तो होगा बल्कि होना चाहेगा वो भी मुझसे परिचित पर डरती हूँ कहीं देर न कर दे वो अपरिचित!

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