ज़माने को दोस्त बनाता हुँ

रहता हुँ किराये के मकान में.

रोज सांसो को बेच कर

किराया चुकाता हुँ

मेरी तो ओकात है बस

मिटटी जितनी

बाते में महलो की कर जाता हुँ

जल जायेगा यह

शरीर एक दिन मेरा

लेकिन फिर भी इसकी

खूबसूरती पर इठलाता हुँ

मे जानता हुँ में स्वयं के सहारे

श्मशान भी नहीं जा सकता

इस लिए ज़माने को दोस्त बनाता हुँ

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