जब शाम बरस रही थी

हाँ; मुमकिन है कि तुम्हें याद न हो कोई बड़ी बात नहीं लेकिन सोचो मैं कैसे भुला दूँ उस रोज़ जब शाम बरस रही थी भीगी हुई सर्द फ़ुहारों का वो समां जो मुहब्बत सा था लेकिन याद करो मुहब्बत कहाँ थी कुछ था तो सिर्फ़ टुकड़े कुछ एहसास थोड़े से ख़्वाब तमाम वादे और ख़्वाहिशों के टुकड़े तुम तो बस कहकर मजबूरियाँ निकल गए  ठीक; हमेशा की ही तरह लेकिन मैं  मैं तो वहीं था देर रात समेटता रहा टुकड़े जो बिखरकर भीगे थे इंतज़ार लिए वहीं बैठा रहा तुम्हारे हर लफ्ज़ को थामे जो गूंजते रहे थे वहाँ मद्धम होती रौशनी के बीच  बरसती फ़ुहारें और मेरा अंतस भीगा हुआ सा बस मिन्नतें करता तो इश्क़ न रहता न और हक़ से रोक लेना इतना हक़ भी कहाँ था पराया कर दिया कुछेक लफ़्ज़ों ने तुम्हारे और मैं जैसे आँसुओं को बस थामे रहा मद्धम रौशनी को जैसे विदा किया गहराते अँधेरे ने ठीक वैसे ही मैंने तुम्हें मुक्त किया था ख़ुद से हालाँकि फ़िर भी बोझ तो था ही दिल-ओ-दिमाग़ पर सदियों के दर्द का नश्तर से चुभते तुम्हारे उन  लफ़्ज़ों को लेकर अलसुबह लौटा था फ़िर फ़िर भी जैसे  जो छोड़ आया  वो लगता था कि ज़्यादा ज़रुरी था मैं उस रोज़ बारिश में एक रिश्ता नहीं एक ख़्वाहिश भी नहीं बल्कि ख़ुद को छोड़ आया जैसे !

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