जागा हुआ ज़मीर वो आईना है

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं। लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं। बिखरा पडा है तेरे ही घर में तेरा वजूद। बेकार महफिलों में तुझे ढूंढता हूँ मैं। क्या जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम। दुनिया समझ रही है के सच मुच तेरा हूँ मैं। पहुँचा जो तेरे दर पे महसूस ये हुआ। लम्बी सी एक कतार मे जैसे खडा हूँ मैं। ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब। दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं। जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’ सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं।

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