बस्तर : प्रथम विश्व युद्ध के समय यहां थी

रायपुर : प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी राज में आदिवासी अंचल बस्तर में पहली वन ट्राम सेवा की आधारशिला रखी गई थी। उत्तरी बस्तर से पड़ोसी प्रांत ओडिशा तक विस्तारित इस ट्राम सेवा को बस्तर के आदिवासी "जंगल की रेल" कहते थे। ट्राम सेवा से हालांकि, लकड़ी और वनोपज की ढुलाई होती थी, पर एक डिब्बा यात्रियों के लिए भी होता था।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों को जब इराक से तेल की जरूरत पड़ी तो उन्होंने इस मार्ग की पटरियों, लोको और अन्य सामान को इराक की राजधानी बगदाद भेज दिया था। अभी हालत यह है कि बस्तर के सात में से पांच जिले रेल सुविधा से वंचित हैं। लगभग 100 साल पुराने रेल मार्ग को अब दोबारा शुरू करने की मांग उठ रही है।

करीब 100 साल पुराना यह रेल मार्ग धमतरी, कुरूद के निकट चरमुड़िया नामक स्थान से बस्तर की ओर मुड़ता था। पहला स्टेशन मेघा था, वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सांकरा, नगरी, लिकमा तक जाती थी। उस समय दुगली में एक आरा मशीन लगाई गई थी। तब ट्राम भाप से चलती थी, इसी आरा मशीन से लकड़ी के स्लीपर तैयार किए जाते थे।

देश में अन्य रेल मार्ग को स्थापित करने के लिए बस्तर से ही स्लीपर भेजे जाते थे। इस ट्राम लाइन के रास्ते में कहीं भी बड़े पुल नहीं थे। रेल मार्ग सीतानदी, उदंती अभ्यारण्य के बीचों-बीच से गुजरता था। ट्राम सेवा चूंकि भाप से चलती थी, इसलिए रास्ते में 5-10 किलोमीटर में कुआं भी बनाए गए थे। रास्ते में ही इंजन में पानी भरकर भाप बनाया जाता था।

आज भी जंगल में कुआं और जर्जर स्टेशन के अवशेष मौजूद हैं। 1929-30 के दौरान इस ट्राम सेवा में 29,865 यात्रियों ने सफर किया था, जिनसे किराये के रूप में 18 हजार रुपये वसूले गए थे। 1941 के आते-आते ट्राम चलाने वाली कंपनी घाटे में चली गई और 19 नवंबर 1941 को यह ट्राम सेवा बंद कर दी गई। वैसे बस्तर में इस ट्राम सेवा का संचालन ब्रिटिश कंपनी किया करती थी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब इराक में तेल सुविधा की जरूरत पड़ी तब ट्राम सेवा में लगी पटरियां, लोको और अन्य सामान उखाड़कर इराक की राजधानी बगदाद भेज दी गई। जब बस्तरवासियों ने ट्राम सेवा बंद नहीं करने की अपील की तो अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से ट्राम सेवा के कर्मचारियों को नोटिस भेजकर बताया गया कि युद्ध सेवाओं के लिए पटरियां उखाड़ी जा रही हैं।

सूत्र बताते हैं कि उस समय तक स्थापित राजिम छोटी लाइन की रेल सेवा की लाइन भी उखाड़ने की बात चली थी पर राजिम पुन्नी मेला और धार्मिक महत्व को देखते हुए बाद में इस सेवा को बहाल रखा गया। 1966 में किरंदुल से कोत्तावल्सा तक 525 किलोमीटर लंबी रेल मार्ग का निर्माण जापान सरकार ने कराया। इसमें भारत सरकार ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया। लौह अयस्क का भंडार बैलाडीला (बस्तर) में होने के कारण ही रेल लाइन का निर्माण हुआ, वहां लौह अयस्क का भंडार नहीं होता तो रेल मार्ग ही नहीं बनता। 

इस मार्ग पर एक यात्री रेलगाड़ी ही चलती है। कभी भी इस यात्री रेलगाड़ी को रद्द कर दिया जाता है। ज्ञात रहे कि दुर्ग से जगदलपुर तक साप्ताहिक यात्री रेल भी शुरू की गई है। 300 किमी दूरी तय करने में सड़क मार्ग से सात घंटे लगते हैं, लेकिन यह रेलगाड़ी 16 घंटों में दुर्ग से जगदलपुर पहुंचती है, क्योंकि यह रायपुर, महासमुंद, खरियार रोड, टिटलागढ़, कोरापुट, रायगढ़ आदि से गुजरती है।

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