निराली है गुरू की महिमा

गुरू एक ऐसा शब्द है, जो आदर का सूचक तो माना ही जाता है वहीं गुरू के बगैर ज्ञान की भी प्राप्ति करना असंभव प्रतीत होता है। निश्चित ही गुरू की महिमा निराली है। गुरू बगैर न ज्ञान प्राप्त हो सकता है और न ही व्यक्ति अपना भविष्य ही संवार सकता है। कहा जाता है कि गुरू अंधकार से प्रकाष की ओर ले जाने वाला व्यक्ति होता है इसलिए प्राचीन काल से ही गुरू की महिमा मंडित है। वस्तुतः गुरू भगवान का स्वरूप होता है लेकिन जिस तरह से वर्तमान में गुरू की महिमा खंडित हुई है वह अंदर से झकझोर जाती है। गुरू के अर्थ को अब सीमित कर दिया गया है। गुरू का तात्पर्य शिक्षक से मान लिया गया है और शिक्षक भी व्यावसायिकता का प्रतीक हो गया है। व्यावसायिकता आज के समय की आवश्यकता जरूर है लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम अपनी परंपरा को बिल्कुल ही भूल जाए। हां अर्थ की प्राप्ति करना चाहिए, मगर शिक्षा के मापदंडो को भी बरकरार रखना भी जरूरी है। रही बात गुरू और शिष्य के रिस्तो की तो समय के मान से इसमें भी परिवर्तन दिखाई देने लगा है क्योकि जब शिक्षक ही अपनी मर्यादा को भूल बैठा है तो फिर विद्यार्थियों का क्या दोष है....। 

कभी शिक्षक के साथ छात्रों द्वारा मारपीट करने का मामला सामने आता है तो कभी किसी शिक्षक पर छात्रा को छेड़ने का भी आरोप लगते हुए दिखाई और सुनाई देता है। यह सब क्या है....कलयुग है....परंतु इसका अर्थ तो यह कदापि नहीं है कि मर्यादाओं का त्याग कर दिया जाए.....मर्यादा रखेंगे तो न छात्र कभी गुर्राएंगे और न ही किसी तरह से अपमान की घुंट ही पीना पड़ेगा। खैर इस मामले में जितना लिखा जाए उतना ही कम है, लेकिन आज गुरू पूर्णिमा अवसर पर तो यह संकल्प लिया जा सकता है कि गुरू को गुरू समान माना जाए, उसकी पूजन नही तो सम्मान ही किया जाए और गुरू भी अपने शिष्य को शिष्य के तौर पर ही माने, दोस्त न समझे वरना गुरू तथा शिष्य के संबंधों के मायने समाप्त होते चले जाएंगे।

शीतल कुमार दुबे

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