गुज़री भी तो किस क़हर से गुज़री

अब के भी ये रुत दिल को दुखाते हुए गुज़री गुज़री है मगर नीर बहाते हुए गुज़री जीने का ये अंदाज़ तो देखो के मेरी उम्र जीने के लिए खुद को मनाते हुए गुज़री काजल सा बरसता था फ़ज़ा से कि मेरी रात बिन तेल के दीपक को जलाते हुए गुजरी  गुज़री भी तो किस क़हर से गुज़री है ये पुरवा सोए हुए जख्मों को जगाते हुए गुज़री ताबीर न मिल पाए तो क्या दुःख कि बादे गम कुछ ख़्वाब तो पलकों पे सजाते हुए गुज़री  नाकाम सी कोशिश की मगर हिज़्र कि हर बार उसकी कमी दुनिया को भुलाते हुए गुज़री

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