सरकारी बैंक, निजीकरण और नीलेकणि

जब से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के घोटाले सामने आए हैं, तब से इन बैंको का निजीकरण किए जाने की मांग उठने लगी है.इसी कड़ी में इंफोसिस के चेयरमैन और यूनिक आईडी प्रोजक्ट (आधार कार्ड) के प्रमुख रह चुके नंदन नीलेकणि अब सरकारी बैंक के निजीकरण के पक्ष में अपने विचार प्रकट कर रहे हैं.

इस बारे में नंदन नीलेकणि का कहना है कि पचास वर्ष पहले जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, क्योंकि वे बड़े उद्योगों पर ही ज्यादा ध्यान देकर छोटे उद्योगों को नजरअंदाज कर रहे थे. इस कारण अब बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मूल तर्क के अस्तित्व का खात्मा हो गया .एक तकनीकी विशेषज्ञ की मानें तो बड़ी कंपनियों को उधार देने के कारण ही 21 सरकारी बैंकों को नुकसान हुआ.

अपनी बात के पक्ष में नीलेकणि का यह तर्क ध्यान देने योग्य है, कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद अब हम मूल तर्क से दूर चले गए हैं, इसलिए अधिकांश बैंक आम जनता के स्वामित्व वाले बाजार सिद्धांतों पर कार्य करते हैं. इसलिए हमें निजीकरण करना चाहिए, हमारे पास कई विकल्प हैं. नंदन तो इसे लेकर इतने आश्वस्त हैं कि अगले 6 से 9 महीनों के अंदर क्यूआर कोड आधारित भुगतान व्यवस्था में तेजी देखने और जल्द ही लोग पान की दुकानों से भी भुगतान करते नज़र आने की बात कहते हैं . लेकिन यहां इस बात का भय भी सता रहा है कि भविष्य में कहीं फिर से वही परिस्थितियां फिर से निर्मित न हो जाए जिन्हें देखकर 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने सरकारी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था.

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