बेकार पड़ा किसान का धन, आत्महत्या करने को कहता मन

क्या आपने हिंदी फिल्म राजनीति के गीत धन है धरती रे, धन-धन धरती रे। सुना है। यह गीत भारत के किसानों के लिए भी सच साबित होता है। जी हां, वे किसान जो दिनरात मेहनत कर फसलों को तैयार करते हैं। आखिर उनका असली धन तो धरती ही है। जी हां, वह धरती जिस पर खेती कर वे सोना लहलहाते हैं आज अनुपजाऊ और बंजर होती जा रही है। रासायनिक उर्वरकों और पेस्टिसाईड्स के उपयोग के कारण यह धरती अनुपजाऊ होती जा रही है। तो दूसरी ओर मौसम का चक्र बिगड़ने के कारण किसानों को नुकसान उठाना पड़ रहा है।

इसके बावजूद भारतीय राजनीति किसानों के साथ छलावे के नए नाटक रच रही है। लगभग हर दल किसानों के लिए लुभावनी घोषणा और लुभावने वायदे करता है मगर किसान फिर भी मर रहे हैं। महाराष्ट्र से लेकर मध्यप्रदेश तक सभी दूर किसान आत्महत्या का शोर मचा हुआ है। आपको आप आदमी पार्टी के प्रदर्शन के दौरान दिल्ली में अपनी जीवन लीला समाप्त करने वाला किसान गजेंद्र तो याद होगा।

आखिर वह किसान अभी भी परेशान है। गजेंद्र की मौत से उठे विद्रोह से उसे कुछ उम्मीद जगी थी मगर बाद में किसानों का मसला ठंडे बस्ते में चला गया और किसान नाउम्मीद हो गया। किसान को चिंता है कि बहुमूल्य बीज लेकर उन्हें इस उम्मीद से वह खेतों में बिछाता है कि मौसम में फसल पकने पर उसे दुगना दाम मिलेगा लेकिन उसकी यह उम्मीद तब हवा हो जाती है जब ओलों और मौसम की मार से उसका यह सोना खेतों में आड़ा हो जाता है और वह उदास हो जाता है। 

यही नहीं किसानों द्वारा आधुनिक दौर के जिस तरह के रासायनिक उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। वे किसान के लिए लंबे समय में बहुत ही परेशानी भरे साबित होते हैं। दरअसल रासायनिक उर्वकरों के प्रभाव से उसके खेतों की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है। जिसके कारण उसकी फसल प्रभावित होती है। किसान अब जैविक खेती की ओर आ रहे हैं। मगर अभी इस क्षेत्र में काफी काम होना शेष है जिसके चलते किसान अभी रासायनिक उर्वरकों के उपयोग का आधार छोड़ नहीं पाए हैं।

सरकारों की नीतियां भी किसानों के अनुकूल नहीं हैं। कई स्थानों पर किसानों को वाजिब दर पर बिजली की बात की जाती है लेकिन हकीकत में उन्हें कम बिजली उपलब्ध करवाई जाती है और बिजली खपत का बिल भी भारी भरकम पकड़ा दिया जाता है। जिससे किसान मुश्किल में पड़ जाते हैं। हालांकि मध्यप्रदेश की सरकार ने अपने क्षेत्र में ओला वृष्टि से प्रभावित किसानों की सुध ली लेकिन फसल नुकसानी को लेकर किए जाने वाले सर्वे की चाल मध्यप्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भी बेहद धीमी है।

जिसके कारण किसान समय पर मुआवज़े का लाभ नहीं ले पाते हैं। हालांकि अब बैंकों के माध्यम से किसानों को ऋण मिलता है लेकिन किसानों का ऋण बकाया होने से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है। सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए आज भी कुछ किसान ऋण देने वाले लोगों के चंगुल में फंस जाते हैं। महाराष्ट्र में तो किसान भयंकर सूखे से परेशान हैं। बीते साल के बाद इस बार भी उन्हें सूखे का सामना करना पड़ रहा है। मराठवाड़ा में तो फिर अकाल का सामना करने की परेशानी भविष्य में सामने आ सकती है। जिसके कारण खेती प्रभावित हो रही है। 

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