दिल मुसाफ़िर ही रहा

दिल मुसाफ़िर ही रहा सूये-सफ़र आज भी है हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है कितने ख्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली कूये-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है नाम हमने जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

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